Saturday, October 24, 2009

6-जीवन बनाम घंटियां

कमला निखुर्पा

बेसुरी घंटी घड़ी की

बज उठी फिर से ट्रिन ट्रिन

छोड़ नींद के सुखद आगोश को

उठना है, जुटना है, खटना है,

दिन भर मुझे मशीन की तरह.............

हुई भोर, मचा षोर

ममा मेरी ड्रेस, नहीं है प्रेस

जल्दी दो टिफिन, हो रही देर

भागती हूं, दौड़ती हूँ, पूरे घर में

चकरघिन्नी की तरह...........

फिर बजी घंटी की अनवरत धुन

टन टन टन, टन टन टन ।

स्कूल है, प्रार्थना सभा है,

समाचार है, विचार है,

समूह गान , राष्ट्रगान सब है

बस नहीं है, इक पल का चैन

किसी विरहन की तरह.............

घंटियों पर घंटियाँ बजती रहीं

छोटी घंटियाँ

लंबी घंटियाँ

हर घंटी के साथ वक्त गुजरता रहा

शोर मचता रहा

किसी मेले की तरह...........

मैम मेरी कॉपी चेक कर दो

मैम मुझे ये कविता समझा दो

मुझे फीस जमा करवानी है

मैडम आपको सर ने बुलाया है

इधर से उधर

यहाँ से वहाँ

चलती रही मैं चलती गई

मेले में भटकी किसी बच्ची की तरह.........

हैरान मैं,

परेशान मैं

निपटाती काम को

पर वह खत्म होता ही नहीं ।

पर वह वक्त देता ही नहीं ।

दो घड़ी चैन से बैठने का

दो बातें करने का

बढ़ता जाता काम

द्रौपदी के चीर की तरह...............

आखिर छुट्टी की घंटी घनघनाई

थके चेहरों पर फिर से रौनक आई

हुई भागमभाग, रेलमपेल

छूटती ट्रेन के मुसाफिरों की तरह........

बढ़ चले कदम, अपने अपने आशियाने की ओर

साथ लिए कुछ मीठी यादें

छुपाए कुछ कुछ कड़वी बातें

बोझिल तनमन

आँखों में कई सपने

दूर बहुत दूर हैं अपने

किससे कहें कसक मन की

सब सिमटे हैं खोल में अपने

किसी कछुए की तरह........

तभी बज उठी घंटी टेलीफोन की

हुई अपनों से बातें कई

फिर भी रह गया

बहुत कुछ अनकहा...

अव्यक्त उदासी है

आज की पीड़ा है

कल की ​चिंता है

निढाल तन, हताश मन

नहीं सह पाता, घंटियों के निर्मम स्वर को

घंटी की आवाज, लगती है हर बार

हथौड़े की चोट की तरह.................

घंटी से बँधी जिंदगी

लगने लगी थी बोझ की तरह.........

अचानक तभी......

हुई मस्जिद में अजान

दूर कहीं...मंदिर में बजी आरती की घंटियाँ

मुखरित -गुंजित हुई, भक्त जनों की स्वर लहरियाँ

पावन प्रदक्षिणा करते, प्रभु को पुकारते

भक्त जनों की पुकार गूँज उठी गगन में

कृष्ण के शखनाद की तरह......

अर्जुन के धनुष की टंकार की तरह.......

दे रही थी संदेश मुझे

मानव ही नहीं भगवान भी बँधे है घंटियों के बंधन में

घंटियाँ मंदिर की हों या चर्च की

या जीवन की

चोट सहती हैं, फिर भी लय और ताल में बजती हैं

मधुर स्वर में कहती हैं

रुकना नहीं है

थकना नहीं है

सहते जाना है बस चलते जाना है

कबीर के करघे की तरह...........

पंत की चींटी की तरह..........

चलते जाना है

बस चलते जाना है

भोर के सूरज की तरह..................

7-मन जम गया: कमला निखुर्पा


कमला निखुर्पा

फिर आया बसंत,

कोयल कूकी, कलियाँ खिल गई

पर मन ना खिला...

चली पुरवाई, छाई घटाएँ

रिमझिम बूंदें बरस गईं

तन भीग गया पर मन ना भीगा....

हुई साँझ, चाँदनी मुसकराई

तारे खिलखिलाए

पपीहे ने रोकर पुकारा पी कहाँ...पी कहाँ...

पर मन ना रोया.....

मन जम गया कहीं वक्त थम गया

हिलोर उठती नहीं

ये क्या हो गया ?

शायद यही कटु सत्य है

यही एक तथ्य है

मशीनी युग का मानव आज मशीन बन गया

तभी तो...

फूलों का खिलना

कोयल का कूकना

बूँदों का बरसना

जस्ट रुटीन बन गया

मानव मशीन बन गया।

हिन्दी


कमला निखुर्पा

हिन्दी! ना बनना तुम केवल माथे की बिन्दी,

जब चाहा सजाया माथे पर,

जब चाहा उतारा फेंक दिया।

हिन्दी! तुम बनना हाथों की कलम,

और जनना ऐसे मानस पुत्रों को,

जो कबीर बन फ़टकारे,

जाति धर्म की दीवारें तोड़ हमें उबारे।

जो सूर बन कान्हा की नटखट केलियाँ दिखलाए,

जीवन के मधुवन में मुरली की तान सुनाए।

जो मीरा बन हृदय की पीर बताए,

दीवानी हो कृष्ण की और कृष्णमय हो जाए।

हिन्दी! मत बनना तुम केवल माथे की बिन्दी,

जन-जन की पुकार बनना तु्म ।

छा जाना तुम सरकारी कार्यालयों में भी,

सभाओं में, बैठकों में, गोष्ठियों में

वार्तालाप का माध्यम बनना तुम।।

हर पत्र-परिपत्र पर अपना प्यारा रूप दिखाना तुम।

हिन्दी! छा जाना तुम मोबाइल के स्क्रीनों पर

रोमन के रंग में न रँगना

देवनागरी के संग ही आना।

केवल रोज डे या फ़्रेंडशिप डे पर ही नहीं

ईद, होली और बैशाखी पर भी,

शुभकामनाएँ देना तुम,

भावों की सरिता बहाना तुम ।

हिन्दी! तुम बनना

की पैड पर चलती उँगलियाँ

अंतरजाल के अनगिनत पृष्ठ बनना तुम,

रुपहले पर्दे को अपना स्नेहिल स्पर्श देना तुम,

उद्घोषिका के चेहरे की मुसकान में

संवाददाता के संवाद में

पत्रकार की पत्रकारिता में

छा जाना तुम

रुपहले पर्दे को छूकर सुनहरा बना देना तुम।

हिन्दी! तुम कभी ना बनना केवल माथे की बिन्दी,

तुम बनना जन गण मन की आवाज,

पंख फ़ैलाना अपने

देना सपनों को परवाज।