Wednesday, September 15, 2010

हाइकु


:कमला निखुर्पा 
1-
मन के मेघ
उमड़े है अपार
नेह बौछार।






2-
छलक उठे
दोनों नैनों के ताल
मन बेहाल।





 

3-
छूने किनारा
चली भाव-लहर

भीगा अन्तर

Sunday, August 22, 2010

कुछ कहना चाहूँगी मै

सुनो .....

कुछ कहना चाहूँगी मै
गुन्जनरत भंवरों से
बौराई मंजरियों से
महकती कलियों से
बिखर जाए मधु पराग कण
विस्तृत धरा में
नील अंबर में
सतरंगी इन्द्रधनुषी आभा में
खिल उठे हर चेहरा हर दृष्टि
मधुमय हो जाए यह सृष्टि
पुष्पित अरविन्द की तरह ........

कुछ कहना चाहूंगी मैं
घिरती घटाओं से
सावन की फुहारों से
गूँज उठे स्वर लहरी मेरी
व्याकुल पपीहे की तरह
बरसे रसधार प्रेम फुहार
चहुँ दिशि चहुँ ओर
बारिश की तरह .....


धरती की पुकार :

                                                          
               -कमला निखुर्पा                                                      
                                               
तपती धरती कहती अंबर के
कानों में बन पपीहे की पुकार।
पीहू पीहू ओ प्रियतम मेरे!
बरसाओ अमृत रसधार।
सुनकर धरा की करुण पुकार
घिर आए श्यामल मेघ गगन में,
बाहें फैलाए क्षितिज के पार।
उमड़ घुमड़ घनघोर, मचाकर रौरव शोर
बरसाकर बूँदों की रिमझिम फुहार ।
अंबर नटखट दूर क्षितिज से,
 निहारे प्रिया को बारम्बार।
जल बूँदों के स्पर्श से सिहर उठी यूँ वसुधा।
पुलकित तन , नवअंकुरित हरित तृण
रोमावलि से उठे लहलहा।
फिर बह चली सुगंधित मंद बयार
तो धरा का रक्तिम किसलय अंचल लहराया।
धानी चूनर ओढ़कर क्यों
 चंचल मन फिर से मुसकाया?
झील की नीली आंखों से,
एकटक निहार प्रियतम अंबर को
दूर गगन में मेघ देख क्यों
व्याकुल मन फिर शरमाया ?
सद्यस्नाता धरा ने ली,
तृप्ति भरी इक गहरी साँस।
महक उठी  हवा भी कुछ,
कुसुमित हुआ जीवन प्रभात
सुरभित हुई दिशाएँ भी और
पल्लवित नवजीवन की आस।



                                                       
कमला निखुर्पा
स्नातकोत्तर शिक्षिका (हिन्दी),
केन्द्रीय विद्यालय वन अनुसंधान संस्थान
देहरादून (उत्तराखंड

Friday, August 20, 2010

सुख-दुख

सुख तो सौरभ है दो दिन का ,

दुख दो पल की धूल है ।

इनको अपनी नियति समझना

ही जीवन की भूल है ।

-रामेश्वर काम्बोज हिमांशु

Saturday, October 24, 2009

अरमानों की पोटली

कमला निखुर्पा

चाहती हूँ मैं

रख दूँ अरमानों की पोटली को, दूर किसी कोने में

झटक दूँ सारी पीड़ाएँ,

सारी चिंताएँ

खो जाऊँ, कहीं गुम हो जाऊँ दुनिया की भीड़ में

पर नहीं हो पाता ये

बारबार खोलती हूं अरमानों की पोटली को

सहेजती हूँ बिखराव को

रोकती हूँ भटकाव को

पर क्या करूँ, उन रंगबिरंगे ख्वाबों का ?

जो बार बार सपनों में आकर

जगा देते हैं मुझे

क्या करूँ उन आहों का?

जो मन की घाटियों में गूँजकर

रुला देते हैं मुझे

नहीं रोक पाती मैं बिखराव को

नहीं रोक पाती मैं भटकाव को

बार बार सहेजती हूँ अरमानों की गठरी को

गाँठ संयम की लगाकर

धर देती हूँ दूर किसी कोने में

पर अचानक झाँकने लगता है गठरी से

ख्वाब का इक रंगीन टुकड़ा

अपने अस्तित्व का पल पल कराता है एहसास

बुलाता मुझे वो बार बार अपने पास

नहीं रोक पाती मैं खुद को

फिर खुल जाती है गाँठ संयम की

फिर बिखर जाती है पोटली अरमानों की

बजने लगती है घंटियाँ

कहीं दूर मन के मंदिर में

बहने लगती है पुरवाई

कोरे कागज के खेतों में

चल पड़ती है कलम मेरी

इक अनजाने सफर में

जगने लगते हैं अरमान

फिर जिंदगी में......

गुरु


गुरु कुम्हार है।
गलाए , तपाए
अनगढ़ घट को बनाए
सुघड़ सलोना,
कच्ची मिट्टी को दिया अद्भुत आधार है।
गुरु कुम्हार है।

गुरु मूर्तिकार है।
निखारे
तराशे
अनगढ़ शिलाओं पर 
उभारे सुन्दर मूर्तियाँ
बनाए सजीव कलाकृतियाँ
कैसा चमत्कार है ?
गुरु मूर्तिकार है।

गुरु बाग़वान है।
बोए, सींचे
जीवन की बगिया में फूल महकाए,
पतझड़ में भी नव बसंत ले आए,
जीवन बना कितना सुंदर उद्यान है ?
गुरु बाग़वान है।

कमला निखुर्पा

परंपरा


i-जनकनंदिनी सीता

क्यों दी तुमने अग्नि परीक्षा?

कि युगों बाद आज भी

यही परंपरा निभाई जा रही,

पहले चिता को सजाकर सीता

सती बनाई जाती रही,

और अब

दहेज के लिए रोज

कई सीताएँ जलाई जा रहीं।

ii-मैथिली

मिथिला की राजकुमारी तुम!

क्यों सहे तुमने कष्ट वनवास के

क्यों वर्षों तक वन में

नंगे पांव कांटों पर चलती रही तुम?

कि हर युग में हर कदम पर

नारी को काँटों का उपहार ही मिला।

अपने घर पर रहकर भी

उसने केवल वनवास ही जिया।

iii-वैदेही

तुम्हें नहीं मालूम?

बदल चुकी है अब

देह की परिभाशा

घुट-घुटकर घर में रोती हैं

आज अनुसूया, अहिल्या

सभ्यता के रुपहले पर्दे पर

नग्न नृत्य करतीं हैं

शूर्पनखा और ताड़का।

iv-जगत्- जननी सीता

क्यों दी तुमने अग्नि परीक्षा?

कि वासना के विमान पर सवार होकर

दसों दिशाओं से दशानन

अट्टहास कर रहा है।

हर घर में सीता के लिए

अविश्वास, असुरक्षा का अग्निकुंड सजा रहा है।

v-जानकी

जने थे तुमने वीर पुत्र,

वीर प्रसू थी तुम

फिर भी नहीं रोक पाए वे

धरती के गर्भ में समाती

अपनी जननी को

तभी तो आज भी

यही परंपरा निभाई जा रही है।

नन्हीं अजन्मी सीताएँ,

माँ की कोख से छीनकर

धरती के गर्भ में दफनाई जा रहीं हैं।

युगों युगों से क्यों यही

परंपरा निभाई जा रही है।

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