Saturday, January 14, 2012

चुनावी तांका

छली गयी थी ,
जनता हर रोज 
जागी है अब, 
ले रही अंगडाई |
बचना रे भाई | 



टोपी सजेगी , 
सर माथे रखेगी ,
ईमानदारों  के |
भ्रष्टों के गले होगी ,
जूतों की लड़ी |






भूख को रोटी, 
तन को मिले वस्त्र | 
सर को छत, 
मिल जाए जो सबको ,
फिर क्यों उठे शस्त्र ?












और अंत में ......जनता जनार्दन !  ये जान लीजिए-  


ई राजनीति 
का होत है बबुआ ? 
किच्छौ नाही रे ...
ई पइसा का खेला 
चार दिन का मेला | 





Wednesday, January 11, 2012

दर्द की भाषा

हाइकु 


98
दर्द की भाषा
मन की ये हताशा
आंसू ही बांचे |


99
मन में चुभी
व्यंग्य वाणों की कील
घाव ना भरें |

100
शब्द हैं चुप  
भीगी पलकें कहे
मन की पीर |
101
चूनर भीगी
भीगे नैन बावरे
मन है  प्यासा !


102
जोडने चली 
खुद टूट गई वो
औरत जो थी |

103
पहाड  बना
अहम पुरुष का
नारी तू  राई ?

Tuesday, December 6, 2011

झूमे रे मन ...



निशा समेटे
तारों भरी चूनर
लो उषा आई ....






उषा के गाल
शर्म से हुए लाल
सूरज आया ...




आया सूरज
किरणें इतराई
खिले कमल ...

खिले कमल
महकी यूँ फ़िजा
भँवर जागा ....

जागे भँवर
गुन्जारे गुनगुन
तितली नाची ....


 नाचे तितली
ता थई ता थई ता
हँसी दिशाएँ....

हँसी दिशाएँ
गगन भी मगन
बावली धरा ....

बावली धरा
ओढ़े धानी चूनर
गाए रे पंछी ...

गाए रे पंछी
गीत मनभावन
 झूमे रे मन ...


Wednesday, October 19, 2011

चोका में बहना


जनम मिले
मुझे जब जग में
तुम हो बहना
हो चाहे प्रलय भी
साथ न छूटे
हम दोनों का कभी
हाथ न छूटे
मैं रहूँ ॠणी सदा
तेरे प्यार का
बँधा ही रहूँ सदा
स्नेह -डोर से
हृदय  के छोर से
तुम पावन
मेरी मनभावन,
मेरा गहना
सुख-दुख में मेरे
गले  लगे रहना


'हिमांशु '

Saturday, October 15, 2011

ताँका


पहाड़ी नदी:कमला निखुर्पा
1
पहाड़ी नदी
है अल्हड़ किशोरी
कभी मचाए
ये धमाचौकड़ी  तो
कभी करे किल्लोल।
2
पहाड़ी नदी
बहाती जीवनधारा
सींचे प्रेम से
तरु की वल्लरियाँ
वन औउपवन
3
पहाड़ी नदी
है  अजब पहेली
कभी डराए
हरहरा कर ये
जड़ें उखाड़ डाले
4
तटों से खेले
ये अक्कड़ -बक्क्ड़
छूकर भागे,
तरु को तिनके को,
आँखमिचौली खेले
5
आईना दिखा
बादलों को चिढ़ाए
कूदे पहन
मोतियों का लहंगा
 झरना बन जाए
6
बहती चली
भोली अल्हड़ नदी
छूटे पहाड़
छूटी घाटियाँ पीछे
सबने दी विदाई
7
चंचल नदी
भूली है चपलता
गति  मंथर
उड़ गई चूनर
फैला पाट -आँचल
8
पहाड़ी नदी
पहुँची सिंधु-तट
कदम रखे
सँभल सँभल के
थकी मीलों चलके।
9
पहाड़ी नदी
बन जाती भक्तिन
बसाए तीर्थ
तटों पर पावन
भक्त भजन गाए ।
10
दीपों से खेले
लहराकर बाँहें
कहे तारों से
आ जाओ मिलकर
खेलेंगे होड़ाहोड़ी।
11
कभी लगती
चिता जो तट पर
बिलख उठे
बहाकर अस्थियाँ
कलकल रव में
-0-


भावों के दीप

12
भावों के दीप
यूँ ही जलते रहें
मन - देहरी ,
 जगमग  रौशन
जीवन हो तुम्हारा 
13
घिसता जाए
क्षणभंगुर तन
मन चंदन
बिखराए सुगंध
पावन है जीवन
-0-


चार तांका किसान के लिए 
14






अरे किसान
तेरे खेत हँसते
मुसकाई हैं
ये धान की बालियाँ
फ़िर तू क्यों रोया है ?



कड़क धूप
जलाती तन-मन
हाड़ कँपाती
ये बैरन सर्दी भी
छत टपक रोती।







16
कटी फ़सल
अन्न लदा ट्रकों पे
लगी बोलियाँ
किसान के हिस्से में
भूसे का ढेर बचा 







17
प्यारा था खेत
सींचा था पसीने ने
बहा ले गया
पगलाया बादल
बस एक पल में।

Wednesday, October 12, 2011

कविता-वाचन

आरोह -अवरोह  और यति-गति का काव्य-वाचन में बहुत महत्त्व है । यदि भावानुकूल वाचन होगा तो अर्थ सहज रूप से अभिव्यक्त हो जाएगा । हरिवंशराय बच्चन की कविता 'बुद्ध और नाचघर' इसका महत्त्वपूर्ण उदाहरण है ।
 -कमला निखुर्पा       http://wwwsamvedan.blogspot.com/2011/10/budh-aur-naach-ghar.html

Saturday, October 1, 2011

अलविदा कैसे कहूँ

सीने में दबी हैं सिसकियाँ ..
अलविदा कहूँ तो फूट पड़ेंगी .

जीना बहुत मुश्किल है तुम्हारे बिन
फिर भी जीना तो पड़ेगा ना हमें ..

अब तक थाम कर चलती रही उंगली  तुम्हारी
अब अकेले ही मंजिल तक पहुंचना है हमें

डरती हूँ मैं
घबराकर सहम जाती हूँ ...
कि इस भीड़ भरे शहर में खो न जाऊं मैं ...
टूट कर बिखर  न जाए मेरी शख्सियत ...
खुद को ढूंढती न रह जाऊं मैं ..

कुछ भी हो ..
चलना तो पडेगा ही ना ?
अकेले दूर तलक .

वादा करती हूँ तुमसे मैं..
चलती रहूंगी
रुकूंगी नहीं मैं  .
चाहे गिरुं खाकर ठोकर ..
बार-बार ..उठूंगी
दर्द अनेक सहूंगी मैं  ..

ये मुश्किल तो है ..
पर नामुमकिन नहीं ..
क्योंकि नेह भरा जो दीपक तुम जला गए हो मन की  देहरी पर
दिखाएंगी  हरदम राह मुझे
अंधियारी अमावस में भी  हर कदम पर एहसास होगा
तुम्हारी चाहत की उजास का...