Sunday, October 13, 2013

युग-चेतना: ‘ई’ जन्मदिन (E-Birthday)

युग-चेतना: ‘ई’ जन्मदिन (E-Birthday)rdkamboj@gmail.com

‘ई’ जन्मदिन (E-Birthday)

‘ई’ जन्मदिन (E-Birthday)
              दिल की गहराइयों से सभी मित्रों और प्यारे विद्यार्थियों का धन्यवाद जिन्होंने सैकड़ों सन्देश भेजकर ( माफी चाहती हूँ कि आप लोग वाल पर नहीं लिख पा रहे हैं ) मुझे याद दिलाया कि मेरा जन्मदिन है ..सच रोजमर्रा  की भाग दौड़ में, कब जिंदगी चुपके से निकल जाती है पता ही नहीं चलता ...कल का पूरा दिन यानि मेरा जन्मदिन ३० पृष्ठों का रिपोर्ट बनाने में गुजर गया |
                         मुझे बहुत याद आ रही है मेरी दादी की जो मेरे जन्मदिन पर सुबह - सुबह मुझे मंदिर ले जाती थी .. नहाधोकर वो नई फ्राक पहनना ...वो पूजा की थाल सजाना ... बगीचे में घूम-घूमकर सबसे सुन्दर  खिले हुए फूल चुनना ..दौड़ते हुए दो किलोमीटर पैदल चढ़ाई चढ़ माता नंदादेवी के मंदिर जाना ... .पहाड़ी के ऊपर चीड के पेड़ों के बीच बना छोटा सा मंदिर .. मंदिर के चारों ओर  लटकती ढेर सारी घंटियाँ, भक्तों की  मनोकामना पूरी होने का प्रतीक थी| मंदिर परिसर की साफसफाई कर हम दोनों धूप दीपक जलाते थे| उस वीराने में जंगल के बीच बने मंदिर में दिप दिपकर जलता दीपक और धूप का धुंआ मंदिर को और रहस्यमय बना देता था| मैं दादी के पीछे खडी-खडी सोचती थी क्या इस पत्थर के अन्दर भगवान् होंगे ? क्या वो मुझे देख रहे होंगे ?  मेरी दादी,  देवी  की मूरत के सामने आंखे बंदकर मन ही मन जाने क्या-क्या बोलती रहती थी ... मैं चुपके से उनके मुंह के पास अपने कान लगा सुनने की कोशिश करती पर कुछ समझ में नहीं आता था| हारकर मैं मंदिर की परिक्रमा करते हुए सारी घंटियाँ बजा-बजा कर सुनती  थी ... ये छोटी वाली घंटी इसकी कितनी प्यारी आवाज ...टिनटिन और ये बड़ा सा घंटा कितना ऊपर लटका है  ... उछल उछलकर जोर  लगाकर उसे बजाकर ही दम लेती .. उफ़ कितना घमंडी है ये घंटा |
       तभी पीले पंखों वाली तितली मेरे आगे-पीछे उड़ने लगती है  .. बस फिर क्या था तितली आगे-आगे और मैं पीछे-पीछे ... जैसे ही पकड़ने की कोशिश करती वो फुर्र से उड़ जाती कभी झाड़ी में ... कभी चट्टान  के ऊपर .. तभी दादी की पुकार सुनकर आसपास देखा तो पता चला कि तितली के साथ मैं मंदिर से बहुत दूर आ गयी हूँ |
मंदिर से वापस जाते हुए मैं दादी से बार बार पूछती हूँ .. अम्मा, आज तू मेरे लिए क्या बनाएगी ?
दादी हंसकर कहती – हलवा पूरी और आलू के गुटके |
मैं आज पूरा दिन खेलूंगी , मेरी गुडिया का डब्बा मुझे दे देना ..|
हाँ हाँ दे दूंगी, पहले घर चलकर मेरी मदद तो कर|
अम्मा, तुम मेरी गुडिया को मत छुपाया करो और हाँ मेरी गुडिया को भी नये कपड़े चाहिए , दोगी ना ??
    मेरी अम्मा ...(लोग कहते थे कि वो सौतेली है उसकी अपनी कोई संतान नहीं) पर मेरे लिए वो सबसे प्यारी , दुनिया से निराली .. उसकी आँखों में ममता का समन्दर लहराता था ..उसकी गोद में  बादलों की कोमलता थी  ..उसकी बातों में परियों की कहानियाँ थी .. जिसका प्यार भरा स्पर्श मैं आज भी महसूस करती हूँ  और पार आकर जाती हूँ हर बाधा को |
    घर के कोने वाले कमरे में एक छोटा सा मंदिर .. जिसमें ढेर सारे देवी देवताओं की तस्वीरें हैं . बहुत सुन्दर सजाया गया है . सबसे पहले हलवा पूरी भगवानजी के सामने  चढ़ाया गया .. मुझे भी चौकी में बिठाकर अक्षत रोली-टीका लगाकर अम्मा ने मुझे फूलों की माला पहना दी .. वहां उपस्थित सभी लोग हंसने लगे .. मैंने सबके पैर छुए और आशीर्वाद लिया |
खाना खाते-खाते मैंने देखा कि चाचाजी मेरा बस्ता निकाल रहे हैं ...
नहीं ....आज मैं नहीं पढूंगी ..
बस गणित के चार सवाल कर ले बेटा ,, फिर छुट्टी ..
खाना आधा छोड़कर मैं भाग गयी बगीचे में .. जहाँ आम ..अमरूद, केला, लीची के पेड़ अपनी डाले फैलाए मेरी राह  देख रहे थे .. जहाँ नर्म घास पर खिले जंगली फूल मुझे बुला रहे थे .. जहाँ रंग बिरंगी चिड़िया कब से चहचहाकर मुझे पुकार रही थी |
काश जिन्दगी में भी Crtl + Z का विकल्प होता तो कितना अच्छा होता.....


कमला निखुर्पा

गुजरात

Sunday, August 18, 2013

नीला नभ , आसमान में आँचल लहराती प्रकट हुई मेघा रानी ,  पेड़ों के पीछे छुपा है नटखट पवन... मेघा रानी को दौड़ा रहा है ...ये क्या दौड़ते -दौड़ते मेघा तो नकचढी बिजली से टकरा गयी... उफ़ गगरी फूट गयी और झर- झर  गिरने लगे सावनी हाइकु ... 

हवा   दौडाए 
 भागी भागी फिरे है 
मेघा पगली |

गिरी धम से 
टकराई बिजली 
फूटी गागर |


चूनर हरी 
 भीगी वसुंधरा की 
सिहर उठी |


मुख निहारे
निर्मल  नीली  झील 
बनी दर्पण |

पावस रानी 
टिप टिप बजाए 
जल तरंग | 

झूमे रे तरु 
पपीहरा गाए है 
नाचे है मोर |



कमला निखुर्पा 
१९ अगस्त २०१३ 

Thursday, August 15, 2013

ज़रा याद करें कुर्बानी



आजादी  पर्व 
है भारतवासी को  
देश पे गर्व । 

उड़ता मन 
विस्तृत गगन  में 
तिरंगे संग । 

गाए अवाम 
एक सुर में आज 
वन्देमातरम । 

लगाए गश्त 
चौकस हैं  निगाहें 
सीमा  प्रहरी । 

लगाता घात 
मित्र बनके  शत्रु 
 धराशायी तू । 



गड़ती  कीलें 
देख तेरा ताबूत  
 माँ के दिल में । 

भारत माता 
लगे श्वेत  साड़ी  में 
तेरी विधवा  । 

 मिट  के भी तू 
अमर है  शहीद
गूंजे ये गीत । 

कमला 


Friday, July 12, 2013

सुनहरी सुबह


सुनहरी सुबह
पंछियों ने चहककर कहा
उठो, जागो, प्यारे बच्चो कि तुम्हे स्कूल बुला रहा है |

चुपके से ठंडी हवा ने कपोलों को छूकर कहा
खिड़कियाँ खोलो जरा, देखो तुम्हे नजारा बुला रहा है
वो देखो बादलों की रजाई में दुबका सूरज भी कुनमुनाकर जाग उठा है
तुम भी आलस छोडो प्यारे बच्चो कि तुम्हे स्कूल बुला रहा है |

पलकें उठाकर तो देखो अपनी बगिया को
रंग बिरंगी यूनीफार्म में सजकर तितलियाँ भी पराग लेने चल पड़ी हैं
तुम भी चल पड़ो बस्ता लेकर कि तुम्हे स्कूल बुला रहा है |

पन्ने फडफडाकर कब से तुम्हे जगा रही है तुम्हारी प्यारी कॉपी
कह रही, संग चलूंगी मैं भी, छोड़ न देना मुझे घर पे अकेली |
अरे रे ..मचल उठी है नन्हीं कलम भी , हाथों में आने को बेकल
लुढ़क ना जाए रूठकर उसे थाम लो तुम
लिख डालो नई इबारत कि तुम्हे स्कूल बुला रहा है |

आओ कि बाहें फैलाकर खड़ा है विद्यालय प्रांगण
हंसा दो अपनी खिलखिलाहट से कि गूंजे दिशाएं
आओ कि पेड़ों ने तुम्हारी राहों में फूल बिखराए है
नन्हे हाथों से तुमने रोपे थे जो पौधे
प्यास उनकी बुझा दो कि तुम्हे स्कूल बुला रहा है |

देखो तो ज़रा , द्वार पे खड़ा सुरक्षा प्रहरी
तुम्हारे स्वागत में, मूंछों में मुस्कराया है |
तोतली मीठी बोली में काका सुनकर मन उसका हरषाया है |
बाँध लो सबको पावन रिश्तों में कि तुम्हे स्कूल बुला रहा है |

आशीष तुम्हे देने को कब से खड़ी माँ शारदा वागेश्वरी
वीणा के तारों को सुर दो कि तुम्हे स्कूल बुला रहा है |
नन्ही उँगलियों से थामकर कलम को
चल पड़ो सृजन पथ पर कि तुम्हे स्कूल बुला रहा है |

चले आओ प्यारे बच्चो कि तुम्हे स्कूल बुला रहा है |

Sunday, July 7, 2013

भीगे हाइकु

भरी भरी थी 
बदरा की अँखियाँ 
बही नदियाँ |

छप से गिरी 
चपला गगन से 
टूटी बिखरी |

छलक उठा 
सरवर का जाम 
नशीली धरा |

इक कोंपल 
नन्हीं सी  दो  कलियाँ 
उगा हाइकु |

Tuesday, May 21, 2013

मैं नलिनी ,कोमल कमल

मैं नलिनी
मैं नलिनी,
जलसुता
सरोवर की गोद में पली मैं
सूरज की किरणों में नहाकर निकली मैं
अपनी नाजुक हथेलियों में, ओस के मोतियों को मैंने समेटा
अपनी मृणाल बाँहों को फ़ैला, लहरों से की है अठखेलियाँ

उषा की लालिमा पा अरविंद बन गई मैं
धवल चंद्रकिरणों का शृंगार कर पुंडरीक कहलाई मैं
मेरे उर की सुरभि से सुरभित संसार हुआ
मेरे रूप-रंग का भँवरों ने गीत गाया
गुन-गुन का गुंजार सुन लजाई मैं
मेरा जीवन
बना सुंदर उपवन

मैं कोमल कमल
कहीं आसीन हो कमल पर, धन बरसाए कमला
कहीं नीलकमलों से श्रीराम करें शक्तिपूजा
सप्तसुर वीणा के सुनाए श्वेत पद्मासना शारदा
धन्य मेरा जीवन
बना दिव्य पूजन

मैं नीरजा मैं वारिजा
मेरे अरविंद आनन ने ममता का आँचल भिगोया
मेरे कमल नयनों ने जग का मन मोहा
मेरे चरणकमलों में भक्त हृदय नत हुआ
कवियों की लेखनी ने उपमान मुझे बनाया है
वाङ्मय सारा, देखो कमलमय हुआ है
पूजन में मैं ,वन्दन में मै
चिन्तन में मैं ,लेखन में मैं
जीवनके हर स्पन्दन में मैं,

प्रतीक बनी पावनता की
सत्यता की ,सुंदरता की
हर्ष की ,पावन स्पर्श की
सबके बीच में रहकर निर्लिप्तता की
पंक में रहकर भी मैंने तब, पावन प्रेम पाया
राजनीति के ध्वज पर चढकर, अब मैंने सब कुछ गवाँया
अब कभी किसी मतवाले हाथी के, पैरों तले मैं रौंदी जाती हूँ
तो कभी किसी पंजे की ताकत से, जड़ों से उखाड़ी जाती हूँ।

मैं अंबुजा पंकजा
आज अपने वृंत से विलग हूँ
सुरभि उड़ चुकी है
पंक में धँस रही हूँ।
मेरा जीवन
बना करुण क्रंदन



 कमला निखुर्पा
२१ जून २०१०
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