Tuesday, October 7, 2014

तस्वीर तुम्हारी

जब भी देखती हूँ तस्वीर तुम्हारी 

बस देखती ही रह जाती हूँ  

तस्वीरों के रंग 

बिखर बिखर जाते हैं मेरे वजूद में 

यादों  के मेघ तले, रंगों की बारिश में भीजती 

चुपके से होठों पे सज जाती है 

इन्द्रधनुषी मुस्कान |



जब भी सुनती हूँ बातें तुम्हारी 

बस सुनती ही रह जाती हूँ 

कुछ कह नहीं पाती 

शहद सी मीठी तेरी बातें 

घुल जाती है अंतर्मन में 

अनजाने ही सरगम के मधुर सुर 

गूंजने लगते है कानों में  |



जब भी मिलती हूँ तुमसे 

मिलने से पहले ही ये तन्हाई 

डर जाती है,  जाने क्यों सहम  जाती है 
  
कि मिलने के बाद बिछुडना भी है  

छुप जाती है अपनी ही परछाई की ओट में 

हाथों में लिए तस्वीर तुम्हारी ..

                                                           
                                                             

                                                    कमल













Wednesday, September 3, 2014

आज उदास है मन ..











बीता  दिवस 
बरस मास बीते 
खुशियाँ  रीती |

रस की नदी 
बही थी कलकल 
सूखने चली |



एकाकी मन 
बुनता ही रहता   
मीठे सपन |



किससे कहें ?
कसक मनवा की 
दूर अपने |


कहाँ  जा छुपी ?
अभी-अभी थी यहीं
पगली हँसी |


रोके ना रुकी 
बरसी बह चली 
सावनी झड़ी |

                                      कमला 

Saturday, August 30, 2014

हरी चूनर




हरी चूनर
पीले फूल काढता
दर्जी बसंत |


माँ तेरी गोद

आज  माँ तेरी गोद फिर आयी याद  .
वो आँचल मैला  सा 
जिसके कोने में तू बांधती थी
 हरदम एक गाँठ |
तेरा फटा सा  आंचल देता था जो सुकून
नहीं नसीब है वो.
-0-


जनकनंदिनी सीता



i-जनकनंदिनी सीता
क्यों दी तुमने अग्नि परीक्षा?
कि युगों बाद आज भी
यही परंपरा निभाई जा रही,
पहले चिता को सजाकर सीता
सती बनाई जाती रही,
और अब
दहेज के लिए रोज
कई सीताएँ जलाई जा रहीं।

ii-मैथिली

मिथिला की राजकुमारी तुम!
क्यों सहे तुमने कष्ट वनवास के
क्यों वर्षों तक वन में
नंगे पांव कांटों पर चलती रही तुम?
कि हर युग में हर कदम पर
नारी को काँटों का उपहार ही मिला।
अपने घर पर रहकर भी
उसने केवल वनवास ही जिया।

iii-वैदेही

तुम्हें नहीं मालूम?
बदल चुकी है अब 
देह की परिभाशा
घुट-घुटकर घर में रोती हैं
आज अनुसूयाअहिल्या
सभ्यता के रुपहले पर्दे पर
नग्न नृत्य करतीं हैं
शूर्पनखा और ताड़का।

iv-जगत्- जननी सीता

क्यों दी तुमने अग्नि परीक्षा?
कि वासना के विमान पर सवार होकर
दसों दिशाओं से दशानन
अट्टहास कर रहा है।
हर घर में सीता के लिए
अविश्वासअसुरक्षा का अग्निकुंड सजा रहा है।

v-जानकी

जने थे तुमने वीर पुत्र,
वीर प्रसू थी तुम
फिर भी नहीं रोक पाए वे
धरती के गर्भ में समाती
अपनी जननी को
तभी तो आज भी
यही परंपरा निभाई जा रही है।
नन्हीं अजन्मी सीताएँ,
माँ की कोख से छीनकर
धरती के गर्भ में दफनाई जा रहीं हैं।
युगों युगों से क्यों यही
परंपरा निभाई जा रही है।
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Sunday, June 8, 2014

कविता का इन्तजार

कविता कहाँ हो तुम ?
पता है  तुम्हे ?
कितनी अकेली हो गई हूँ मैं तुम्हारे बगैर .
आओ ना ...

कलम कब से तुम्हारे इन्जार में सूख रही है और मैं भी ...
ये नीरस दिनचर्या और ये मन पर मनों बोझ तनाव का ..
हर रोज गहरे अँधेरे कुंए में धकेलते जाते हैं ..
आओ ..उदासी के गह्वर से निकाल , कल्पना के गगन की सैर कराओ ना ...

ये शहर, ये कोलाहल, धुआँ उगलती ये चिमनियाँ
हर रोज दम घोट रही हैं
आओ .. भावों की बयार बहा जीवन शीतल कर जाओ ना .....

देखो वो डायरी , धूल से सनी, सोई पड़ी है कब से 
शब्दों के सितारों से सजा उसे जगाओ ना ..
 आओ छंदों की पायल पहन 
गुंजा दो मन का सूना आँगन 

कि कलम भी नाचे
भावना बहे
कल्पना के पंख सैर कराएँ त्रिभुवन की
कविता अब आ भी जाओ
मैं जोह रही हूँ बाट तुम्हारी