कानों में बन पपीहे की पुकार।
पीहू पीहू ओ प्रियतम मेरे! बरसाओ अमृत रसधार।
सुनकर धरा की करुण पुकार
घिर आए श्यामल मेघ गगन में, बाहें फैलाए
क्षितिज के पार।
उमड़ घुमड़ घनघोर, मचाकर रौरव शोर
बरसाकर बूँदों की रिमझिम फुहार।
अंबर नटखट दूर क्षितिज से,
निहारे प्रिया को बारम्बार।
जल बूँदों के स्पर्श से सिहर उठी यों वसुधा।
पुलकित तन, नवअंकुरित हरित तृण
रोमावलि से उठे लहलहा।
फिर बह चली सुगंधित मंद बयार
तो धरा का रक्तिम किसलय अंचल लहराया।
धानी चूनर ओढ़कर क्यों चंचल मन फिर से मुसकाया?
झील की नीली आँखों से,
एकटक निहार प्रियतम अंबर को
दूर गगन में मेघ देख क्यों व्याकुल मन फिर शरमाया?
सद्यस्नाता धरा ने ली, तृप्ति भरी इक गहरी साँस।
महक उठी हवा भी कुछ,
कुसुमित हुआ जीवन प्रभात
सुरभित हुई दिशाएँ भी और
पल्लवित नवजीवन की आस।
5 comments:
पुलकित तन, नवअंकुरित हरित तृण
रोमावलि से उठे लहलहा।
फिर बह चली सुगंधित मंद बयार
तो धरा का रक्तिम किसलय अंचल लहराया।
अच्छा चित्रण...मन को हर्षाते हुए..
बधाई|
इतनी सुन्दर कविता , शब्द जैसे प्रकृति का गुणगान कर रहे हो.. बहुत अच्छा लगा आपको पढकर ...
बधाई !!
आभार
विजय
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कृपया मेरी नयी कविता " फूल, चाय और बारिश " को पढकर अपनी बहुमूल्य राय दिजियेंगा . लिंक है : http://poemsofvijay.blogspot.com/2011/07/blog-post_22.html
धरती की पुकार में पूरा वातावरण सजीव हो उठा है । लगता है हम भी उसी का एक हिस्सा हैं । जब आप कविता रचती हैं तो उसमें पूरी तरह डूबकर लिकती हैं ।सभी बहुत सुन्दर है। ये पंक्तियाँ तो बहुत प्रभाव्शाली हैं। झील की नीली आँखों से,
एकटक निहार प्रियतम अंबर को
दूर गगन में मेघ देख क्यों व्याकुल मन फिर शरमाया?
सद्यस्नाता धरा ने ली, तृप्ति भरी इक गहरी साँस।
महक उठी हवा भी कुछ,
कुसुमित हुआ जीवन प्रभात
सुरभित हुई दिशाएँ भी और
पल्लवित नवजीवन की आस।
♥
आदरणीय रामेश्वर काम्बोज 'हिमांशु'जी
प्रणाम !
मैं तो समझ रहा था कि आपकी कविता है … आप स्वयं कमेंट कर रहे हैं … तो लगता है कि किसी और की है …
किस की ?
उनको बधाई !
आपकी रचनाएं किस ब्लॉग पर रहती हैं ?
प्रोफाइल में इतने ब्लॉग्स आपके नाम के साथ हैं … दुविधा में पड़ जाता हूं …
बहरहाल
आपको सपरिवार
नवरात्रि पर्व की बधाई और शुभकामनाएं-मंगलकामनाएं !
-राजेन्द्र स्वर्णकार
आप सभी को मेरी अनगढ़ सी रचना (धरती की पुकार) भा गयी ... ये मेरे लिए किसी पुरस्कार से कम नहीं ...शायद लिखने की प्रेरणा ऐसे ही मिलती होगी ... वरना कितनी रचनाएँ डायरी में बंद, दम तोड़ देंती होंगी ...
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