Sunday, October 13, 2013

युग-चेतना: ‘ई’ जन्मदिन (E-Birthday)

युग-चेतना: ‘ई’ जन्मदिन (E-Birthday)rdkamboj@gmail.com

‘ई’ जन्मदिन (E-Birthday)

‘ई’ जन्मदिन (E-Birthday)
              दिल की गहराइयों से सभी मित्रों और प्यारे विद्यार्थियों का धन्यवाद जिन्होंने सैकड़ों सन्देश भेजकर ( माफी चाहती हूँ कि आप लोग वाल पर नहीं लिख पा रहे हैं ) मुझे याद दिलाया कि मेरा जन्मदिन है ..सच रोजमर्रा  की भाग दौड़ में, कब जिंदगी चुपके से निकल जाती है पता ही नहीं चलता ...कल का पूरा दिन यानि मेरा जन्मदिन ३० पृष्ठों का रिपोर्ट बनाने में गुजर गया |
                         मुझे बहुत याद आ रही है मेरी दादी की जो मेरे जन्मदिन पर सुबह - सुबह मुझे मंदिर ले जाती थी .. नहाधोकर वो नई फ्राक पहनना ...वो पूजा की थाल सजाना ... बगीचे में घूम-घूमकर सबसे सुन्दर  खिले हुए फूल चुनना ..दौड़ते हुए दो किलोमीटर पैदल चढ़ाई चढ़ माता नंदादेवी के मंदिर जाना ... .पहाड़ी के ऊपर चीड के पेड़ों के बीच बना छोटा सा मंदिर .. मंदिर के चारों ओर  लटकती ढेर सारी घंटियाँ, भक्तों की  मनोकामना पूरी होने का प्रतीक थी| मंदिर परिसर की साफसफाई कर हम दोनों धूप दीपक जलाते थे| उस वीराने में जंगल के बीच बने मंदिर में दिप दिपकर जलता दीपक और धूप का धुंआ मंदिर को और रहस्यमय बना देता था| मैं दादी के पीछे खडी-खडी सोचती थी क्या इस पत्थर के अन्दर भगवान् होंगे ? क्या वो मुझे देख रहे होंगे ?  मेरी दादी,  देवी  की मूरत के सामने आंखे बंदकर मन ही मन जाने क्या-क्या बोलती रहती थी ... मैं चुपके से उनके मुंह के पास अपने कान लगा सुनने की कोशिश करती पर कुछ समझ में नहीं आता था| हारकर मैं मंदिर की परिक्रमा करते हुए सारी घंटियाँ बजा-बजा कर सुनती  थी ... ये छोटी वाली घंटी इसकी कितनी प्यारी आवाज ...टिनटिन और ये बड़ा सा घंटा कितना ऊपर लटका है  ... उछल उछलकर जोर  लगाकर उसे बजाकर ही दम लेती .. उफ़ कितना घमंडी है ये घंटा |
       तभी पीले पंखों वाली तितली मेरे आगे-पीछे उड़ने लगती है  .. बस फिर क्या था तितली आगे-आगे और मैं पीछे-पीछे ... जैसे ही पकड़ने की कोशिश करती वो फुर्र से उड़ जाती कभी झाड़ी में ... कभी चट्टान  के ऊपर .. तभी दादी की पुकार सुनकर आसपास देखा तो पता चला कि तितली के साथ मैं मंदिर से बहुत दूर आ गयी हूँ |
मंदिर से वापस जाते हुए मैं दादी से बार बार पूछती हूँ .. अम्मा, आज तू मेरे लिए क्या बनाएगी ?
दादी हंसकर कहती – हलवा पूरी और आलू के गुटके |
मैं आज पूरा दिन खेलूंगी , मेरी गुडिया का डब्बा मुझे दे देना ..|
हाँ हाँ दे दूंगी, पहले घर चलकर मेरी मदद तो कर|
अम्मा, तुम मेरी गुडिया को मत छुपाया करो और हाँ मेरी गुडिया को भी नये कपड़े चाहिए , दोगी ना ??
    मेरी अम्मा ...(लोग कहते थे कि वो सौतेली है उसकी अपनी कोई संतान नहीं) पर मेरे लिए वो सबसे प्यारी , दुनिया से निराली .. उसकी आँखों में ममता का समन्दर लहराता था ..उसकी गोद में  बादलों की कोमलता थी  ..उसकी बातों में परियों की कहानियाँ थी .. जिसका प्यार भरा स्पर्श मैं आज भी महसूस करती हूँ  और पार आकर जाती हूँ हर बाधा को |
    घर के कोने वाले कमरे में एक छोटा सा मंदिर .. जिसमें ढेर सारे देवी देवताओं की तस्वीरें हैं . बहुत सुन्दर सजाया गया है . सबसे पहले हलवा पूरी भगवानजी के सामने  चढ़ाया गया .. मुझे भी चौकी में बिठाकर अक्षत रोली-टीका लगाकर अम्मा ने मुझे फूलों की माला पहना दी .. वहां उपस्थित सभी लोग हंसने लगे .. मैंने सबके पैर छुए और आशीर्वाद लिया |
खाना खाते-खाते मैंने देखा कि चाचाजी मेरा बस्ता निकाल रहे हैं ...
नहीं ....आज मैं नहीं पढूंगी ..
बस गणित के चार सवाल कर ले बेटा ,, फिर छुट्टी ..
खाना आधा छोड़कर मैं भाग गयी बगीचे में .. जहाँ आम ..अमरूद, केला, लीची के पेड़ अपनी डाले फैलाए मेरी राह  देख रहे थे .. जहाँ नर्म घास पर खिले जंगली फूल मुझे बुला रहे थे .. जहाँ रंग बिरंगी चिड़िया कब से चहचहाकर मुझे पुकार रही थी |
काश जिन्दगी में भी Crtl + Z का विकल्प होता तो कितना अच्छा होता.....


कमला निखुर्पा

गुजरात

Sunday, August 18, 2013

नीला नभ , आसमान में आँचल लहराती प्रकट हुई मेघा रानी ,  पेड़ों के पीछे छुपा है नटखट पवन... मेघा रानी को दौड़ा रहा है ...ये क्या दौड़ते -दौड़ते मेघा तो नकचढी बिजली से टकरा गयी... उफ़ गगरी फूट गयी और झर- झर  गिरने लगे सावनी हाइकु ... 

हवा   दौडाए 
 भागी भागी फिरे है 
मेघा पगली |

गिरी धम से 
टकराई बिजली 
फूटी गागर |


चूनर हरी 
 भीगी वसुंधरा की 
सिहर उठी |


मुख निहारे
निर्मल  नीली  झील 
बनी दर्पण |

पावस रानी 
टिप टिप बजाए 
जल तरंग | 

झूमे रे तरु 
पपीहरा गाए है 
नाचे है मोर |



कमला निखुर्पा 
१९ अगस्त २०१३ 

Thursday, August 15, 2013

ज़रा याद करें कुर्बानी



आजादी  पर्व 
है भारतवासी को  
देश पे गर्व । 

उड़ता मन 
विस्तृत गगन  में 
तिरंगे संग । 

गाए अवाम 
एक सुर में आज 
वन्देमातरम । 

लगाए गश्त 
चौकस हैं  निगाहें 
सीमा  प्रहरी । 

लगाता घात 
मित्र बनके  शत्रु 
 धराशायी तू । 



गड़ती  कीलें 
देख तेरा ताबूत  
 माँ के दिल में । 

भारत माता 
लगे श्वेत  साड़ी  में 
तेरी विधवा  । 

 मिट  के भी तू 
अमर है  शहीद
गूंजे ये गीत । 

कमला 


Friday, July 12, 2013

सुनहरी सुबह


सुनहरी सुबह
पंछियों ने चहककर कहा
उठो, जागो, प्यारे बच्चो कि तुम्हे स्कूल बुला रहा है |

चुपके से ठंडी हवा ने कपोलों को छूकर कहा
खिड़कियाँ खोलो जरा, देखो तुम्हे नजारा बुला रहा है
वो देखो बादलों की रजाई में दुबका सूरज भी कुनमुनाकर जाग उठा है
तुम भी आलस छोडो प्यारे बच्चो कि तुम्हे स्कूल बुला रहा है |

पलकें उठाकर तो देखो अपनी बगिया को
रंग बिरंगी यूनीफार्म में सजकर तितलियाँ भी पराग लेने चल पड़ी हैं
तुम भी चल पड़ो बस्ता लेकर कि तुम्हे स्कूल बुला रहा है |

पन्ने फडफडाकर कब से तुम्हे जगा रही है तुम्हारी प्यारी कॉपी
कह रही, संग चलूंगी मैं भी, छोड़ न देना मुझे घर पे अकेली |
अरे रे ..मचल उठी है नन्हीं कलम भी , हाथों में आने को बेकल
लुढ़क ना जाए रूठकर उसे थाम लो तुम
लिख डालो नई इबारत कि तुम्हे स्कूल बुला रहा है |

आओ कि बाहें फैलाकर खड़ा है विद्यालय प्रांगण
हंसा दो अपनी खिलखिलाहट से कि गूंजे दिशाएं
आओ कि पेड़ों ने तुम्हारी राहों में फूल बिखराए है
नन्हे हाथों से तुमने रोपे थे जो पौधे
प्यास उनकी बुझा दो कि तुम्हे स्कूल बुला रहा है |

देखो तो ज़रा , द्वार पे खड़ा सुरक्षा प्रहरी
तुम्हारे स्वागत में, मूंछों में मुस्कराया है |
तोतली मीठी बोली में काका सुनकर मन उसका हरषाया है |
बाँध लो सबको पावन रिश्तों में कि तुम्हे स्कूल बुला रहा है |

आशीष तुम्हे देने को कब से खड़ी माँ शारदा वागेश्वरी
वीणा के तारों को सुर दो कि तुम्हे स्कूल बुला रहा है |
नन्ही उँगलियों से थामकर कलम को
चल पड़ो सृजन पथ पर कि तुम्हे स्कूल बुला रहा है |

चले आओ प्यारे बच्चो कि तुम्हे स्कूल बुला रहा है |

Sunday, July 7, 2013

भीगे हाइकु

भरी भरी थी 
बदरा की अँखियाँ 
बही नदियाँ |

छप से गिरी 
चपला गगन से 
टूटी बिखरी |

छलक उठा 
सरवर का जाम 
नशीली धरा |

इक कोंपल 
नन्हीं सी  दो  कलियाँ 
उगा हाइकु |

Tuesday, May 21, 2013

मैं नलिनी ,कोमल कमल

मैं नलिनी
मैं नलिनी,
जलसुता
सरोवर की गोद में पली मैं
सूरज की किरणों में नहाकर निकली मैं
अपनी नाजुक हथेलियों में, ओस के मोतियों को मैंने समेटा
अपनी मृणाल बाँहों को फ़ैला, लहरों से की है अठखेलियाँ

उषा की लालिमा पा अरविंद बन गई मैं
धवल चंद्रकिरणों का शृंगार कर पुंडरीक कहलाई मैं
मेरे उर की सुरभि से सुरभित संसार हुआ
मेरे रूप-रंग का भँवरों ने गीत गाया
गुन-गुन का गुंजार सुन लजाई मैं
मेरा जीवन
बना सुंदर उपवन

मैं कोमल कमल
कहीं आसीन हो कमल पर, धन बरसाए कमला
कहीं नीलकमलों से श्रीराम करें शक्तिपूजा
सप्तसुर वीणा के सुनाए श्वेत पद्मासना शारदा
धन्य मेरा जीवन
बना दिव्य पूजन

मैं नीरजा मैं वारिजा
मेरे अरविंद आनन ने ममता का आँचल भिगोया
मेरे कमल नयनों ने जग का मन मोहा
मेरे चरणकमलों में भक्त हृदय नत हुआ
कवियों की लेखनी ने उपमान मुझे बनाया है
वाङ्मय सारा, देखो कमलमय हुआ है
पूजन में मैं ,वन्दन में मै
चिन्तन में मैं ,लेखन में मैं
जीवनके हर स्पन्दन में मैं,

प्रतीक बनी पावनता की
सत्यता की ,सुंदरता की
हर्ष की ,पावन स्पर्श की
सबके बीच में रहकर निर्लिप्तता की
पंक में रहकर भी मैंने तब, पावन प्रेम पाया
राजनीति के ध्वज पर चढकर, अब मैंने सब कुछ गवाँया
अब कभी किसी मतवाले हाथी के, पैरों तले मैं रौंदी जाती हूँ
तो कभी किसी पंजे की ताकत से, जड़ों से उखाड़ी जाती हूँ।

मैं अंबुजा पंकजा
आज अपने वृंत से विलग हूँ
सुरभि उड़ चुकी है
पंक में धँस रही हूँ।
मेरा जीवन
बना करुण क्रंदन



 कमला निखुर्पा
२१ जून २०१०
© सर्वाधिकार सुरक्षित
अनुभूति व्यक्तिगत अभिरुचि की अव्यवसायिक साहित्यिक पत्रिका है। इसमें प्रकाशित सभी रचनाओं के सर्वाधिकार संबंधित लेखकों अथवा प्रकाशकों के पास सुरक्षित हैं। लेखक अथवा प्रकाशक की लिखित स्वीकृति के बिना इनके किसी भी अंश के पुनर्प्रकाशन की अनुमति नहीं है। यह पत्रिका प्रत्येक सोमवार को परिवर्धित होती है|

Sunday, May 12, 2013

पहाडी नार



मैं पहाड़न
घास मेरी सहेली
पेड़ों से प्यार |

वो बचपन
वो माटी का आँगन
भुलाऊं कैसे
दादी की गुनगुन ?

कोंदों की रोटी
नमक संग खाऊं
वो भी ना मिले
तो मैं भूखी सो जाऊं |

खेत जंगल
निराली पाठशाला |
मेरा तो बस्ता  
घास का भारी पूला |
मेरी कलम
कुदाल औ दराती |

दिन भर भटकूँ
फिसलूं गिरूँ
चोट खाके  मुस्काऊं
उफ़ ना करूं


नंगे पाँव ही
चढनी है चढाई,
आंसू को पोछ
लड़नी है लड़ाई |

सूने है खेत
वीरान खलिहान |
भूखी गैया ने  
खड़े किए हैं कान |
पत्थर सा कठोर
है भाग्य मेरा ,
फूलों से भी कोमल
है गीत मेरा |

हुई बड़ी मैं
नजरों में गड़ी मैं
पलकें ना उठाऊं |
खुद को छुपा
आँचल ना गिराऊं|

मेंहदी रचे
नाजुक गोरे  हाथ|
पराई हुई
बाबुल की भी गली |

हुई विदा मैं
बाबा गंगा नहाए
आंसू में भीगी
मेरी माँ दुखियारी |

तीज त्यौहार
आए  बुलाने भाई
भाई को देख
कितना  हरषाई!!
दुखड़ा भूल
अखियाँ  मुसकाई

एक पल में
बस एक पल में
बचपन जी आई |

कमला निखुर्पा




  





 




Sunday, March 31, 2013

कहानी 'ऊँच नीच'


ऊँच नीच 





उत्तरांचल के कुमाऊँ का सुन्दर सा गाँव , चीड़ , बांज, बुरांश के पेड़ों से घिरी हरी-भरी पहाड़ियों  प्राकृतिक सुन्दरता से भरपूर  घाटी में बसा है कलावती का गाँव | सुबह सूरज की  पहली किरण से ऊंची पहाड़ी पर स्थित नंदा मैया के मंदिर  का कलश जगमग करने लगा |   आडू के पेड़ पर घुघूती गाने लगी ... घुर घुघूती घुर घुर ....
ईजा (माँ) चिल्लाई “कलावती अरे ओ कला ! उठ इस्कूल नहीं जाना तुझे? ... देख  घाम (धूप) निकल आई , आज फिर आन सिंह मास्टर ने तेरी डंडे से पिटाई करनी है | अरे निहुनी संतान अब उठ जल्दी से ...”
कलावती, थुलमे (ऊनी रजाई ) से सर कान ढकते हुए कुनमुनाई “अम्मा  बस थोड़ी देर और सोने दे ना“
 तू ऐसे नहीं उठेगी  कहते हुए माँ ने थुलमा खींचकर कला को उठा दिया |
कला आँखें मलते हुए रसोई में जाकर दादी के गोद में पसर गयी |
सर पे हाथ फेरती हुई दादी ने दुलार करते हुए कहा “उठ गयी मेरी पोथी, चल हाथ मुंह धो ले देख आज मैंने तेरे लिए क्या बनाया है ? “ कला ने उनींदी आखों से देखा लोहे की बड़ी सी कढाई में आलू के पीले-पीले गुटके ... पीतल के परात में धरे मीठे-मीठे पुए ...
खुशी से किलक कर कला बोली “ओ हो पकवान !! आमा आज कौन सा त्यौहार है?”
“हां बाबा ! आज श्री पंचमी है , आज से प्रधानजी  के ठुल खौल (बड़े आँगन) में , बैठ होली शुरू हो जायेगी,  अब तू जल्दी से खेत जौ के तिनके ला .. पूजा के लिए फूल लाने हैं फिर दर्जी के यहाँ से नये कपडे की कतरन भी लाना है| कितना सारा काम पड़ा है |”
“दादी आज मेरी छुट्टी कर दो ना.. अर्जी देदो परुली के हाथ ... मैं नहीं जाउंगी इस्कूल आज |”
“ठीक है मत जा , तेरी ईजा मारेगी तुझे तो मत रोना , अब जल्दी से पूजा की तैयारी कर ... वो डाला ले जा बाबा ... फूल तोड़ ला |”
फूलों की डलिया लेकर सीढ़ीदार खेतों से उतरती कला स्वछन्द पंछी की तरह उड़ रही थी ...स्कूल जाती अपनी सहेलियों को हाथ हिलाकर छेड़ती हुई मंद मंद मुस्काती सोच रही थी, जाओ जाओ  तुम,  दिनभर इस्कूल में , खाओ डंडे ... रमेशचंद मासाब, आन सिंह मास्साब से  मैं तो आज घर पे रहूंगी  हाँ , दिन भर बागीचे में खेलूंगी  ... उसे लगा, खेतों के किनारे खिले प्योंली के फूल भी उसके साथ हंस रहे हैं | वह गुनगुनाने लगी, घाटी के सारे पंछी मिलकर मानो उसके सुर में सुर मिलाने लगे |
फूलों से भरी डलिया लेकर कला घर पहुंची ,देखा  दादी बड़ी सी नथ, सोने की मटर माला .. नौ पाट वाला छींट का घाघरा पहन देवी मैया सी बनकर पूजा के स्थान पर बैठी है|
दादी की नथ को छूकर कला हमेशा की  तरह हैरान होकर कहती है , आमा इतना बड़ा नथ पहन कर तेरी नाक नहीं दुखती,  कितने तोले का है ये ?
दादी गर्व से कहती, “नहीं रे क्यों दुखेगी भला, पूरे पांच तोले की है  “ जितना बड़ा खानदान , उतनी बड़ी नथ, तेरी शादी में इससे बड़ी नथ देंगे , पहनेगी ना?”  
“ नहीं मैं शादी नहीं करूंगी, मैं तो डाक्टर बनूंगी |”
“डाक्टर बनने के लिए रोज इस्कूल जाना पडेगा | ऐसे छुट्टी करके थोड़े ही डाक्टर बनते है !”
“मैं कल से रोज इस्कूल जाउंगी पर शादी नहीं करुँगी |”
छोटी सी कलावती भरे पूरे परिवार का लाड-दुलार पाकर अव्वल नंबरों से प्रथम श्रेणी से दसवीं पास कर स्कूल से इंटर कालेज में पढने जाने लगी | कालेज दूर था ,पांच किलोमीटर पैदल चलकर कला पढने जाती, हाथों में किताब थामे , आसमानी कुरते  सफ़ेद दुपट्टा पहने कला अपने कालेज को निकलती तो घास काटने के जाती घसियारिने बहुएं रोक कर कहती ..
अरे बाबु कैकी चेली छे तू , कि नाम छ तेरु ? (अरे बिटिया किसकी बेटी है तू ? क्या नाम है तेरा ?) 
नाम ( कला ) बताने पर वो हंसने ने लगती  “अरे पोथी तू तो धौली (गोरी चिट्टी )   तेर नाम काला नही धौली गंगा हुन चैछी, जैकी घर माँ जाली उजाला कर देली( अरे बिटिया तुम्हारा नाम कला नहीं गोरी गंगा होना चाहिए  जिसके घर जायेगी उजाला कर देगी )”
पहाड़ी रस्ते पर रोज मीलों चलकर कला  थक कर चूर होकर कालेज से वापस आती  पर उसके सपने कभी नहीं  थकते  | छोटे भाई बहिनों के साथ  प्यार-तकरार , दादी के गोद की गर्माहट , दादा का रौबीला व्यक्तित्व , घर कभी-कभी आने वाले पिताजी सब तो थे  साथ ! कि एक दिन सब कुछ बदल गया |  
    उस दिन, कैमिस्ट्री का प्रेक्टिकल कैंसिल हो गया था , कला के क्लास की जल्दी छुट्टी हो गयी , स्कूल से जल्दी वापस आना पड़ा, अकेले पहाड़ियों को पार करते उसे लगा जैसे कोई उसके पीछे आ रहा है ...चुपके से मुड़कर देखा तो आवारा लड़का शराब के नशे में धुत उसके पीछे चला आ रहा है ..जाने क्यों चेहरा जाना पहचाना सा लग रहा था , शायद  कहीं न कहीं देखा है , शायद पीछा कर रहा  है  , ओह आज मैं अकेली हूँ ,,, वो तेजी से कदम बढ़ाने लगी , तो वो भी तेज तेज चलने लगा , अपना बस्ता थाम वो दौड़ पड़ी ... हांफते हांफते पहाडी  चढ़ने लगी, हे भगवन कोई मिल जाए, हे देवी मैया किसी को भेज दो , देखा सामने मोड़ पर पड़ोस के गाँव के बुजुर्ग बैठकर सुस्ता रहे थे , बेबस कबूतरी की तरह कला उनके बगल में दुबककर बैठ गयी |
“बुबू आप कसार रहते हो न ?”
“हाँ पोथी मैं तेरे गाँव आया था  मैं दीबा का काका हूँ |”
 “अरे हाँ दिबा दीदी कहाँ है आजकल ?”
“आजकल घर आई है वो | “
“अच्छा !”
 काका के साथ बतियाते साथ-साथ चलते हुए कला पीछा करने वाले शराबी को भी तिरछी नजर से देखती हुई सोच रही थी , अगले मोड़ से काका के गाँव का रास्ता अलग हो जाएगा , फिर वो क्या करेगी ?
अच्छा  बेटी!  मैं चलता हूँ ... तू अच्छे से जाना हाँ |
कला ने शराबी को देखा वह सुरक्षित दूरी बना कर चल रहा था ताकि काका को संदेह न हो .. उसकी लाल आँखों को देख कला ने मन में ठान लिया, वो अपने गाँव के रस्ते पर अकेली नहीं जाएगी ...काका से कैसे कहे कि वो शराबी पीछा कर रहा है ,संकोच ने जुबान पर ताला जड़ दिया  |
“काका मैं भी आपके साथ आउंगी, मुझे भी दीबा दी से मिलना है ..”
“ठीक है बेटी चल |”
शराबी हैरान सा उसे जाता देखता रहा |
कला, काका के साथ आशंकित मन से अनजान गाँव की ओर चल पड़ी| गाँव में प्रवेश करते ही दीबा दी मिली , उसके रुआंसे चेहरे और उड़े रंग को देख दीबा ने सब कुछ पूछ लिया,  दीबा साक्षात् दुर्गा  का रूप धर हाथ में घास काटने वाली बड़ी दरांती लेकर बोली , “चल मेरे साथ अभी , मैं अभी तुझे घर छोड़कर आती हूँ | “
 “नहीं दीदी अभी नहीं, थोड़ी देर में चलते है अभी वो आसपास ही होगा|”
 “तू मत डर चल मेरे साथ” 
 उसका  डर सच था , वो अभी भी कला के गाँव जाने वाले रस्ते पर रुका हुआ इन्तजार कर रहा था | दीबा के हाथ में हंसिया देख वो रफूचक्कर हो गया | घर जाकर उसने रोते-रोते दादी को सबकुछ बताया|  दादी उस लड़के पर खूब गुस्सा हुई , क्रोधित दादा कुल्हाड़ी लेकर पूरे दिन आसपास के गाँव में चक्कर लगाते रहे , दादी कई दिन तक सारा काम छोड़ उसे स्कूल छोड़ने-लेने जाती रही... पर कब तक ?
पास पड़ोस के लोग ताने मारने लगे –
 “कब तक पीछे-पीछे जाओगी इसके?”  
“अरे ! दसवीं पास हो गयी, अब शादी कर दो इसकी |”
“पर अभी वो पढ़  रही है, उसकी पढ़ाई?”                      
“अरे पढाई तो शादी के बाद भी कर सकती है, कहीं कोई ऊंच-नीच हो गयी तो गले में पत्थर बाँध कर   डूब मरना अपनी पोती  के साथ”
             दादी सोच में डूबी रहती , दादा भुनभुनाते रहते , शादी के लिए रिश्ते आने लगे | लड़के वालों से कहा गया कि बिटिया शादी  के बाद पढाई  जारी रखेगी , सो चट मंगनी पट ब्याह होगा  | ब्याह के दिन कला को रंगीली पिछौड़ी ओढाकर उसकी छोटी सी नाक में  बड़ी सी नथ पहनाई गयी, नाक सूज कर लाल हो गयी |  विदा होते समय वह  फूटफूट कर रोई , स्कूल छूट जाने का दर्द , जबरदस्ती पहनाई गयी लाल चंदक वाली भारी नथ से दुखती नाक का दर्द ,  ईजा (मां) , बौज्यू (पिताजी) , बूढ़ी आमा (दादी), बूबू (दादा )  छोटे- छोटे  भाई –बहन से बिछुड़ने का दर्द और हाँ गोठ में धौली गाय, नन्हीं सी बछिया बिनुली ,जिसके गले में  वह फूलों की माला पहनाती थी उनसे कभी न मिल पाने  का दर्द | आम, अमरूद के बगीचे में डाली में  झूलते हुए  गीत न गा पाने का दर्द |  
दर्द में भीगे सारे जख्मों को अपने आंचल में छुपा परिवार की खातिर कला बेटी, पोथी, बाबा से ब्वारी (बहू)  बन गयी|
“ओ ब्वारी गोरु के लिए घास काट ला|”
“ये ब्वारी तेरी सास गोबर निकाल  रही है तुझे तो शर्म नहीं ?”
“दिनभर घर पे बैठके तूने क्या किया ? गाय को भी नहीं दुहा |”
कैसे कहे कि उसे इस काली मरखनी गाय से बहुत डर लगता है , दूध दुहना तो दूर वह तो उसे घास भी देने से डरती है |
 गधेरे पार कच्ची पगडंडी पर चलते हुए धारे से गागर में पानी भरते-भरते अचानक  कला को घुघूती की सुरीली आवाज आती है... घुर घुघूती घुर घुर..उसके  आँखों के सामने नाचने लगते हैं  आडू के पेड़, आम के बगीचे, दादी की मीठी पुकार , बांज के जंगलों की ठंडी हवा,  लाल बुरांश  के फूलों से सजा  जंगल , चट्टान के सीने को तोड़ कर  बहता मीठे पानी का सोता,
 उसे लगा कहीं उसके भीतर भी कुछ टूट कर बहने लगा है .. जो पलकों से निकल बहते–बहते कपोलों  को भिगो गया है ...  भरी गागर सर पर रख खाली मन से चलते चलते वह ठिठक गयी देखा ,किनारे पर झाड़ियों में प्योंली के पीले-पीले फूल खिल गए हैं | चटख रंग के फूलों ने मन को उमंगित कर दिया , ओह बसंत आ गया !!  साल बीत गया , पेड़ों पे फिर से नयी कोंपलें  फूटने लगीं, पीली प्योंली तू फिर खिल गयी और मैं?  मैं भी खिलूंगी, हाँ खिलूंगी मैं , मुरझाऊँगी नहीं मैं,  तभी पदम् के पेड़ पर बैठी न्योली चहक उठी नीहू नीहू ,...  कला के  सपने जाग उठे, पंख फैलाकर उड़ने  लगे|  वह पढेगी, रुकी हुई पढाई को दुबारा शुरू करेगी, खुद डाक्टर नहीं बन पाई तो क्या , अपने बच्चों को खूब पढ़ाएगी उन्हें डाक्टर जरूर  बनाएगी | अपने बच्चों को ऊंच-नीच का डर नहीं दिखायेगी, उसकी आँखों में अब नव बसंत की  सी  चमक थी |

 जल्दी - जल्दी घर   पहुँचकर उसने पानी से भरा गागर रसोई में रखा ,  आले पर पड़ी कलम उठाई , पोस्टकार्ड लिया और अपने परदेशी पति को पत्र  लिखने लगी | कागज पे ढेरों फूल खिल उठे |

कमला निखुर्पा