Sunday, May 12, 2013

पहाडी नार



मैं पहाड़न
घास मेरी सहेली
पेड़ों से प्यार |

वो बचपन
वो माटी का आँगन
भुलाऊं कैसे
दादी की गुनगुन ?

कोंदों की रोटी
नमक संग खाऊं
वो भी ना मिले
तो मैं भूखी सो जाऊं |

खेत जंगल
निराली पाठशाला |
मेरा तो बस्ता  
घास का भारी पूला |
मेरी कलम
कुदाल औ दराती |

दिन भर भटकूँ
फिसलूं गिरूँ
चोट खाके  मुस्काऊं
उफ़ ना करूं


नंगे पाँव ही
चढनी है चढाई,
आंसू को पोछ
लड़नी है लड़ाई |

सूने है खेत
वीरान खलिहान |
भूखी गैया ने  
खड़े किए हैं कान |
पत्थर सा कठोर
है भाग्य मेरा ,
फूलों से भी कोमल
है गीत मेरा |

हुई बड़ी मैं
नजरों में गड़ी मैं
पलकें ना उठाऊं |
खुद को छुपा
आँचल ना गिराऊं|

मेंहदी रचे
नाजुक गोरे  हाथ|
पराई हुई
बाबुल की भी गली |

हुई विदा मैं
बाबा गंगा नहाए
आंसू में भीगी
मेरी माँ दुखियारी |

तीज त्यौहार
आए  बुलाने भाई
भाई को देख
कितना  हरषाई!!
दुखड़ा भूल
अखियाँ  मुसकाई

एक पल में
बस एक पल में
बचपन जी आई |

कमला निखुर्पा




  





 




1 comment:

सहज साहित्य said...

बहुत सुन्दर और भावपूर्ण कविता ्के लिए बहुत बधाई बहन !