चारों
पायों ने मिलकर जकड़ रखा है
उड़ने को
बेताब कदमों को
हाथों
में थमी कलम
दौड़ने को
बिकल
कल्पना
की घाटी में
जहां
फूलों की महक में कोई सन्देश छुपा है
जहां
पंछियों के कलरव में मधुर संगीत गूंजा है
अभी-अभी
जहां बादलों ने सूरज से आंखमिचौली खेली है
वो
प्यारी सी रंगीन डायरी
जाने कब
से उपेक्षित है
धूल से
सनी कोने पे पड़ी
हर रोज
नजर आती है
और मैं
नजरें चुरा लेती हूँ
फाइलों
के ढेर में दबी जा रही कविता
टूटती
साँसों के बीच अचानक
कहीं दूर
से इक हवा का झोंका
डाकिया
बन कानों में कुछ कह जाता है
बंद
लिफ़ाफ़े की खिड़की से झांक
खिलखिला उठती है किताबें
खिलखिला उठती है किताबें
किताबों
में पाकर अपनी खोई सहेलियों को
फिर से
जी उठती है कविता
सारे
बंधनों के बीच भी
आजादी के
कुछ पल पा लेती है कविता
कितना ही
बाँधे कुर्सी
उड़ान भर
लेती है कविता |
कमला निखुर्पा २३.०२.२०१४
4 comments:
जीवन -सत्य से रूबरू कराती कविता । आपकी विशेषता है बड़ी से बड़ी बात को बहुत्सादगी से कहकर दिल को छू लेना । 'कुर्सी और कविता' इस तथ्य की गवाह है।
Bahut sundar....kavita ki hamesha vijay ho....��
Bahut sundar....kavita hi humesha vijay ho🙏
Bahut sundar....kavita hi humesha vijay ho🙏
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