Thursday, May 12, 2011

मेरी यादें

अस्पताल की खिड़की

  मेरे सामने हरे रंग के चुन्नटदार पर्दे से सजी अस्पताल के प्राइवेट रूम की खिड़की है। खिड़की पर्दा हटाया तो देखा सामने एक अलग ही दुनिया थी। ऐसी दुनिया, रोजमर्रा के जीवन में जिसकी हम केवल एक झलक ही देख पाते हैं। अपनी  भागती दौड़ती जिंदगी में आज तक निम्नवर्ग के लोगों के जीवन का ट्रेलर ही देखा था। आज फुर्सत से पूरी फिल्म देख रही हूं।
पिछले चार साल से मैं पेटदर्द से जूझ रही थी। घर से दूर सरकारी नौकरी , अकेले दोनो बच्चियों की जिम्मेदारी और कई निजी समस्याओं के कारण मैं अपना ऑपरेशन टालती जा रही थी। अब लगने लगा था कि अधिक देर करना उचित नहीं। पतिदेव को फोन किया । वे छुट्टी लेकर आ गए। तय हुआ कि भीलवाड़ा में सुविधाएं कम हैं इसलिए उदयपुर जाकर इलाज कराया जाए।
झीलों की नगरी उदयपुर, उदयपुर का यह सरस्वती अस्पताल, मेरी प्यारी डॉक्टर विनया पेंडसे और यह सरस्वती अस्पताल का प्राइवेट रूम नं. 202 । छोटा सा हवादार कमरा , सामने है खिड़की, जिसके हरे पर्दे हटाकर मैं बैठ जाती हूं और खो जाती हूं खिड़की के उस पार की अनोखी दुनिया में-
         जहां गली में छोटे-छोटे नंगधड़ंग बच्चे खेल रहे हैं, भाग रहे हैं, कभी हंसते हैं तो कभी जोर-जोर से रोते हैं। जहां  कुत्तों की भौं-भौं है, बकरियों की मैं-मैं है । सामने एक पुराना सा घर है, घर के बाहर ईंधन के लिए लकड़ियों का ढेर रखा है जिस पर रंग-बिरंगे घाघरे सूख रहे हैं।  लंबे-लंबे कानों वाली काली बकरी मैं-मैं करती एक घाघरी के पास जाकर उसे चबाने लगती है तभी अ्रंदर से प्रकट होती है- कंकालवदना, दंतविहीना, शुभ्रकेशा और श्यामवर्णा वृद्धा जो चीखते हुए सामने से लकड़ी उठाकर बकरी को धमकाती है। बकरी घाघरा चबाना छोड़ छलांग लगाकर भाग जाती है। एक -दो -तीन पूरी 13 बकरियां हैं, उनके गोबर की गंध अस्पताल के दूसरे मंजिल की खिड़की को पारकर मुझे परेशान करने लगी है। मैं खिड़की बंद कर देती हूं पर घुटन महसूस हो रही है। थोड़ी देर बाद मैं फिर से खिड़की खोल देती हूं।
         अब की बार मेरी नजर जाती है दाहिनी ओर, जहां सीमेंट के चबूतरे पर एक छोटा सा मंदिर बना है। मंदिर के अंदर पता नहीं कौन से देवता विराजमान हैं पर बाहर चबूतरे में भगवान शिव अपने नागराज की छतरी लगाए निर्लिप्त बैठे हैं। मंदिर के अंदर बड़े से पत्थर पर लाल रंग पुता है। शायद हनुमान जी का मंदिर है। मंदिर के दरवाजे के पास दो पीपल के वृक्ष एक दूसरे से लिपटे हुए मानो आलिंगन कर रहे हैं। वह मोटा तना वाला वृक्ष जो सीधा तनकर खड़ा है मानो नर है और ये जो पतली सी काया वाली, तने में जगह-जगह गोलाकार उभार लिए झुकी हुई सी मानो नारी रूप को चरितार्थ कर रही है। जहां पुष्ट तने वाला वृक्ष अभिमान से खड़ा है वहीं लतारूपिणी वह लतिका झुकी हुई सी उस नर वृक्ष के सीने में सर रखकर मानो प्रणय निवेदन कर रही है। मेरी नजरें उस वृक्ष की जड़ों पर टिक गई, देखा कि उसकी जड़ें बाहर आ गई हैं। उसे गिरने से बचाने के लिए लकड़ी का सहारा दिया गया है। मेरे मन में उसे देखकर एक प्रश्न उठने लगता है। क्यों सदियों से नारी को जड़ों से उखाड़ा जाता रहा है, मायके की मिट्टी से उखाड़कर उसे ससुराल में रोप दिया जाता है। ससुराल में बार-बार उसकी जड़ों को उखाड़कर देखा जाता है कि  कहीं जड़ तो नहीं जमा रहीं है। जब वह मुरझाने लगती है तो उसे सहारा देकर जताया जाता है कि तुम कमजोर हो, सहारा लेकर जीना सीखो। जड़ें जमाने की कोशिश मत करना ।
         इन सबसे अलग उस पुराने घर के सामने की दीवार से चिपका हुआ है एक रंगीन गुलमोहर का पेड़ जिसकी चटक हरियाली उस घर की बदरंग दीवारों के  को फीकेपन को और उभार रही है । अरे रे! मेरे दार्शनिक खयालों को तो बकरी ने चर डाला। ये क्या?  मंदिर में घुसकर बकरी महोदय, नारंगी रंग में रंगे अपने बालाजी हनुमान को प्यार से चाट रहे हैं। चाट ही नहीं रहे बल्कि चबाने की कोशिश भी कर रहे हैं। धन्य हो प्रभु तुम्हारी लीला! खिड़की बंद कर मैं सोने की कोशिश कर रही हूं। आज मेरे सारे टेस्टों की रिपोर्ट आने वाली है। पता नहीं क्या होगा, मन आशंकित है।
            आज यहां रहते-रहते दो दिन बीत चुके हैं। सारी जांचे सामान्य है अब ऑपरेशन की तैयारी चल रही है। घबराहट हो रही है, सोने की कोशिश कर रही हूं पर नींद नहीं आती। अचानक खिड़की की उस पार की दुनिया से चीखने की आवाज से मैं उठ गई, खिड़की खोलते ही गोबर की तीखी गंध नाक में समा गई। अब मुझे गोबर की बदबू से मितली नहीं आती शायद आदत पड़ गई है । सब परिस्थितियों का खेल है। मैंने देखा कि सामने से कपालकुंडला कंकाला माता सर पर बकरियों के गोबर से भरी टोकरी लेकर आ रही है। टोकरी से गोबर फेंककर वृद्धा हुड़दंग मचाते पोते-पोतियों पर फिर चिल्लाती है। मुझे लगता है शायद वह धीरे से, प्यार से बोलना भूल गई है। उसकी चीख सुनकर बकरियां तो डर जाती हैं पर उसके पोते-पोतियों का नंगधड़ंग दल खिलखिलाकर हंसते हुए उसे चिढ़ाकर भाग जाता है। वृद्धा बेचारी क्या करे वह कोशिश करती है कि जोर से गरजे, दहाड़े पर उसके मुंह से निकलती है अजीब सी चीख। हर वक्त उसकी चौकस आंखें चारों ओर का निरीक्षण करती रहती है। वृद्धा का सुपुत्र, डरा सहमा सा जो  सिर उठाकर, नजर मिलाकर बात भी नहीं कर सकता। सब उसे दुत्कारते हैं और वह बरसात में भीगे श्वान की तरह नजरें चुराकर भागा-भागा फिरता है।
वृद्धा की बहू, जो मुश्किल से सत्रह या अठारह साल की होगी पर तीन - तीन बच्चों के मातृत्व के बोझ ने उसे असमय ही बुढ़ापे की ओर धकेल दिया है। अंदर धंसी हुई तेजहीन आंखें, दुबला शरीर, सामने के दो दांत बाहर निकले हैं वे सफेदी और हंसी का आभास कराते हैं लेकिन चेहरे की निराशा और पीड़ा की कालिमा को छुपा नहीं पाते । परिवार की सबसे शोषित प्राणी तो शायद यही बहू है। तीन दिन से वही कपड़े पहने हुए है शायद नहाई भी नहीं। साबुन का प्रयोग तो शायद कभी नहीं होता इस परिवार में क्योंकि वृद्धा ने अपने पोते के शौच को धोया पर हाथ धोने के लिए साबुन तो क्या राख या मिट्टी का प्रयोग भी नहीं किया। उधर बहू ने भी छोटे बच्चे के शौच से सने कपड़े केवल पानी से खंगाल लिए। बच्चे भी हैंडपंप चलाकर बिना साबुन के ही नहा रहे हैं। मैं सोच में पड़ गई क्या इन्हें कभी साबुन नसीब नहीं होता होगा? गंदे हाथों को धोने के लिए भी नहीं। उफ! यह कितनी भयावह स्थिति है मेरे आजाद  भारत देश में ।
            बुढ़िया बीच सड़क में उकड़ूँ बैठ गई है मानो यह सड़क नहीं उसका अपना आंगन हो। यह सड़क उनका आंगन भी है स्नानगृह भी है, पूजाघर भी है, पनघट भी है और बच्चों के खेलने का पार्क भी यही सड़क है। यह सड़क सभी घरों का आंगन भी है, जहां खड़े होकर सब लोग बतियाते हैं, गरियाते हैं, आते जाते लोगों को निहारते हैं। यही सड़क जिस पर चबूतरा बना है। जिसमें भगवान शिव और हनुमानजी शोभायमान हैं, पूजागृह के द्वार  सबके लिए खुले हैं, इंसान ही नहीं, बकरी हो या कुत्ता जब चाहे आराम से भगवानजी को सूंघकर-चाटकर चले जाते हैं । इस भेदभाव से रहित आदर्श मंदिर के चारों ओर बच्चे खेल रहे हैं। आते-जाते स्कूटरों, ठेलों तथा राह चलते लोगों से बेखबर ये नन्हे-मुन्ने जिनका निचला हिस्सा अनावृत है शायद उनकी मांओं ने कपड़े धोने के झंझट से बचने के लिए उन्हें पाजामा या चड्डी पहनाई ही नहीं। अपनी नग्नता से बेखबर ये नन्हे फरिश्ते कभी इधर-उधर बिखरे बकरी के गोबर से, लकड़ी से खेलते हैं तो कभी पहिएदार लकड़ी के एक फट्टे पर बैठकर सवारी का मजा लेते हैं। कमाल की गाड़ी है ये, एक लकड़ी का पटरा जिस पर छोटे-छोटे चार पहिए लगे हैं । एक बच्चा उस पहिएदार पटरे पर बैठ जाता है, दूसरा उसे पीछे से धक्का देता है। इस गाड़ी की सवारी के लिए बारी-बारी से ये बच्चे एक दूसरे को धक्का मारते हुए घुमाते हैं। धक्कामार गाड़ी पर सवार बच्चे की आंखों में झलकती खुशी की चमक देखकर लगता है कि पहली बार हवाई जहाज की यात्रा करने वाले यात्री की आंखों की चमक इन नन्हीं आंखों के सामने फीकी है।
          सड़क पर मेरे सामने जिंदगी का कारवां गुजर रहा है। कोई छम-छम करती घूंघट में सजी सुहागन पूजा के लिए जा रही है। कहीं दूर ठेले वाला पुकार रहा है, केले ले लो......ताजे मीठे केले ले लो............। दूर आसमान में बादल गहराने लगे हैं। ठंडी हवा के साथ रिमझिम बारिश शुरू हो गई है। मैं भी थककर खिड़की से नजरें हटा वहीं सोफे पर पसर जाती हूं। आंखों में थकान है, नींद से पलकें भारी हो रही है पर मन अनजानी आशंकाओं से भयभीत है। कल सुबह 10 बजे मेरा आपरेशन है, बच्चे भी मेरे पास नहीं हैं। कल क्या होगा..? ठंडी फुहारें खिड़की से अंदर आ रही हैं। खिड़की के पर्दे को बंदकर मैं सोने की कोशिश करती हूं।
दरवाजे पर ठक-ठक की आवाज आती है। मैं गहरी नींद से जाग जाती हूं। दरवाजा खोलकर देखा। सामने अस्पताल का वार्डबॉय खड़ा है।
‘‘मैडम आपका फोन आ रहा है।
 फोन तो बंद है। कोई घंटी नहीं बजी।
वार्डबॉय फोन को उलट-पुलटकर देखता है, फिर कोई बटन दबाता है। फोन बज उठता है। ट्रिन...........ट्रिन.....।
 मैंने फोन उठाया।
‘‘हैलो ...........‘‘
‘‘हैलोजी आप कमला बोल रही हैं ना ?‘‘
‘‘हांजी मैं रूम नं. 202 से कमला बोल रही हूं।‘‘
‘‘अरे मैं मोटाराम बोल रिया हूं। दिलीप और माया वहीं हैं क्या ?‘‘
‘‘जी मैं समझी नहीं शायद आपने गलत नम्बर लगाया है।‘‘
‘‘अरे मैं मोटाराम!! मेरी कमला नहीं बोल रही है क्या ?‘‘
‘‘जी नहीं । नाम तो ठीक है पर मैं मोटाराम की कमला नहीं हूं। रांग नम्बर।
‘‘ठीक है जी आप तो फोन रख दो।

      तभी मेरे पति आ गए। मैने उन्हे सारा किस्सा सुनाया तो वे खूब हंसे और बोले-‘‘ भई मैं तो मैं तो तुम्हारे इलाज के चक्कर में दौड़भाग करते करते पतला हो गया हूं। क्या तुमने कोई मोटाराम ढूंढ लिया है क्या ?
मैं भी खूब हंसी । वाह!! ये सरस्वती अस्पताल,  ये कमरा नं. 202 ये अस्पताल की खिड़की, ये मोटेरामजी की कमला और मैं..........!!!!



कमला निखुर्पा
केन्द्रीय विद्यालय, वन अनुसंधान संस्थान
देहरादून।


      

2 comments:

SANDEEP PANWAR said...

कपालकुंडला कंकाला माता वाह क्या नाम रखा है आपने क्या कहने

सहज साहित्य said...

बाप रे इतना अच्छा लिखना दुखों में भी मुस्कराना और भैया को इस पोस्ट का पता ही न चला !मैं तो पढ़ते-पढ़ते खो गया एक दम । चीखती चिल्लाती बुढ़िया कारेखाचित्र बहुत बढ़िया । बधाई बहना