ऊँच नीच
उत्तरांचल के कुमाऊँ का सुन्दर सा गाँव , चीड़ , बांज, बुरांश के पेड़ों से घिरी
हरी-भरी पहाड़ियों प्राकृतिक सुन्दरता से
भरपूर घाटी में बसा है कलावती का गाँव |
सुबह सूरज की पहली किरण से ऊंची पहाड़ी पर
स्थित नंदा मैया के मंदिर का कलश जगमग
करने लगा | आडू के पेड़ पर घुघूती गाने लगी ... घुर घुघूती
घुर घुर ....
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कलावती, थुलमे (ऊनी रजाई ) से सर कान ढकते हुए कुनमुनाई “अम्मा बस थोड़ी देर और
सोने दे ना“
तू ऐसे नहीं उठेगी कहते हुए माँ ने थुलमा खींचकर कला को उठा दिया
|
कला आँखें मलते हुए रसोई में जाकर दादी के गोद में पसर गयी |
सर पे हाथ फेरती हुई दादी ने दुलार करते हुए कहा “उठ गयी मेरी पोथी, चल हाथ
मुंह धो ले देख आज मैंने तेरे लिए क्या बनाया है ? “ कला ने उनींदी आखों से देखा
लोहे की बड़ी सी कढाई में आलू के पीले-पीले गुटके ... पीतल के परात में धरे मीठे-मीठे
पुए ...
खुशी से किलक कर कला बोली “ओ हो पकवान !! आमा आज कौन सा त्यौहार है?”
“हां बाबा ! आज श्री पंचमी है , आज से प्रधानजी के ठुल खौल (बड़े आँगन) में , बैठ होली शुरू हो जायेगी, अब तू जल्दी से
खेत जौ के तिनके ला .. पूजा के लिए फूल लाने हैं फिर दर्जी के यहाँ से नये कपडे की
कतरन भी लाना है| कितना सारा काम पड़ा है |”
“दादी आज मेरी छुट्टी कर दो ना.. अर्जी देदो परुली के हाथ ... मैं नहीं जाउंगी
इस्कूल आज |”
“ठीक है मत जा , तेरी ईजा मारेगी तुझे तो मत रोना , अब जल्दी से पूजा की
तैयारी कर ... वो डाला ले जा बाबा ... फूल तोड़ ला |”
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फूलों से भरी डलिया लेकर कला घर पहुंची ,देखा
दादी बड़ी सी नथ, सोने की मटर माला .. नौ पाट वाला छींट का घाघरा पहन देवी
मैया सी बनकर पूजा के स्थान पर बैठी है|
दादी की नथ को छूकर कला हमेशा की तरह
हैरान होकर कहती है , आमा इतना बड़ा नथ पहन कर तेरी नाक नहीं दुखती, कितने तोले का है
ये ?
दादी गर्व से कहती, “नहीं रे क्यों दुखेगी भला, पूरे पांच तोले की है “ जितना बड़ा खानदान , उतनी बड़ी नथ, तेरी शादी
में इससे बड़ी नथ देंगे , पहनेगी ना?”
“ नहीं मैं शादी नहीं करूंगी, मैं तो डाक्टर बनूंगी |”
“डाक्टर बनने के लिए रोज इस्कूल जाना पडेगा | ऐसे छुट्टी करके थोड़े ही डाक्टर
बनते है !”
“मैं कल से रोज इस्कूल जाउंगी पर शादी नहीं करुँगी |”
छोटी सी कलावती भरे पूरे परिवार का लाड-दुलार पाकर अव्वल नंबरों से प्रथम
श्रेणी से दसवीं पास कर स्कूल से इंटर कालेज में पढने जाने लगी | कालेज दूर था
,पांच किलोमीटर पैदल चलकर कला पढने जाती, हाथों में किताब थामे , आसमानी कुरते सफ़ेद दुपट्टा पहने कला अपने कालेज को निकलती तो
घास काटने के जाती घसियारिने बहुएं रोक कर कहती ..
अरे बाबु कैकी चेली छे तू , कि नाम छ तेरु ? (अरे बिटिया किसकी बेटी है तू ?
क्या नाम है तेरा ?)
नाम ( कला ) बताने पर वो हंसने ने लगती “अरे
पोथी तू तो धौली (गोरी चिट्टी ) तेर नाम काला नही धौली गंगा हुन चैछी, जैकी घर माँ जाली उजाला कर देली( अरे
बिटिया तुम्हारा नाम कला नहीं गोरी गंगा होना चाहिए जिसके घर जायेगी उजाला कर देगी )”
पहाड़ी रस्ते पर रोज मीलों चलकर कला थक
कर चूर होकर कालेज से वापस आती पर उसके
सपने कभी नहीं थकते | छोटे भाई बहिनों के साथ प्यार-तकरार , दादी के गोद की गर्माहट , दादा का
रौबीला व्यक्तित्व , घर कभी-कभी आने वाले पिताजी सब तो थे साथ ! कि एक दिन सब कुछ बदल गया |
उस दिन, कैमिस्ट्री का प्रेक्टिकल
कैंसिल हो गया था , कला के क्लास की जल्दी छुट्टी हो गयी , स्कूल से जल्दी वापस आना
पड़ा, अकेले पहाड़ियों को पार करते उसे लगा जैसे कोई उसके पीछे आ रहा है ...चुपके से
मुड़कर देखा तो आवारा लड़का शराब के नशे में धुत उसके पीछे चला आ रहा है ..जाने
क्यों चेहरा जाना पहचाना सा लग रहा था , शायद
कहीं न कहीं देखा है , शायद पीछा कर रहा
है , ओह आज मैं अकेली हूँ ,,, वो
तेजी से कदम बढ़ाने लगी , तो वो भी तेज तेज चलने लगा , अपना बस्ता थाम वो दौड़ पड़ी
... हांफते हांफते पहाडी चढ़ने लगी, हे
भगवन कोई मिल जाए, हे देवी मैया किसी को भेज दो , देखा सामने मोड़ पर पड़ोस के गाँव
के बुजुर्ग बैठकर सुस्ता रहे थे , बेबस कबूतरी की तरह कला उनके बगल में दुबककर बैठ
गयी |
“बुबू आप कसार रहते हो न ?”
“हाँ पोथी मैं तेरे गाँव आया था मैं दीबा
का काका हूँ |”
“अरे हाँ दिबा दीदी कहाँ है आजकल ?”
“आजकल घर आई है वो | “
“अच्छा !”
काका के साथ बतियाते साथ-साथ चलते हुए
कला पीछा करने वाले शराबी को भी तिरछी नजर से देखती हुई सोच रही थी , अगले मोड़ से
काका के गाँव का रास्ता अलग हो जाएगा , फिर वो क्या करेगी ?
अच्छा बेटी! मैं चलता हूँ ... तू अच्छे से जाना हाँ |
कला ने शराबी को देखा वह सुरक्षित दूरी बना कर चल रहा था ताकि काका को संदेह न
हो .. उसकी लाल आँखों को देख कला ने मन में ठान लिया, वो अपने गाँव के रस्ते पर
अकेली नहीं जाएगी ...काका से कैसे कहे कि वो शराबी पीछा कर रहा है ,संकोच ने जुबान
पर ताला जड़ दिया |
“काका मैं भी आपके साथ आउंगी, मुझे भी दीबा दी से मिलना है ..”
“ठीक है बेटी चल |”
शराबी हैरान सा उसे जाता देखता रहा |
कला, काका के साथ आशंकित मन से अनजान गाँव की ओर चल पड़ी| गाँव में प्रवेश करते
ही दीबा दी मिली , उसके रुआंसे चेहरे और उड़े रंग को देख दीबा ने सब कुछ पूछ
लिया, दीबा साक्षात् दुर्गा का रूप धर हाथ में घास काटने वाली बड़ी दरांती
लेकर बोली , “चल मेरे साथ अभी , मैं अभी तुझे घर छोड़कर आती हूँ | “
“नहीं दीदी अभी नहीं, थोड़ी देर में
चलते है अभी वो आसपास ही होगा|”
“तू मत डर चल मेरे साथ”
उसका
डर सच था , वो अभी भी कला के गाँव जाने वाले रस्ते पर रुका हुआ इन्तजार कर
रहा था | दीबा के हाथ में हंसिया देख वो रफूचक्कर हो गया | घर जाकर उसने रोते-रोते
दादी को सबकुछ बताया| दादी उस लड़के पर खूब
गुस्सा हुई , क्रोधित दादा कुल्हाड़ी लेकर पूरे दिन आसपास के गाँव में चक्कर लगाते
रहे , दादी कई दिन तक सारा काम छोड़ उसे स्कूल छोड़ने-लेने जाती रही... पर कब तक ?
पास पड़ोस के लोग ताने मारने लगे –
“कब तक पीछे-पीछे जाओगी इसके?”
“अरे ! दसवीं पास हो गयी, अब शादी कर दो इसकी |”
“पर अभी वो पढ़ रही है, उसकी पढ़ाई?”
“अरे पढाई तो शादी के बाद भी कर सकती है, कहीं कोई ऊंच-नीच हो गयी तो गले में
पत्थर बाँध कर डूब मरना अपनी पोती के साथ”
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दर्द में भीगे सारे जख्मों को अपने आंचल में छुपा परिवार की खातिर कला बेटी,
पोथी, बाबा से ब्वारी (बहू) बन गयी|
“ओ ब्वारी गोरु के लिए घास काट ला|”
“ये ब्वारी तेरी सास गोबर निकाल रही
है तुझे तो शर्म नहीं ?”
“दिनभर घर पे बैठके तूने क्या किया ? गाय को भी नहीं दुहा |”
कैसे कहे कि उसे इस काली मरखनी गाय से बहुत डर लगता है , दूध
दुहना तो दूर वह तो उसे घास भी देने से डरती है |
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उसे लगा कहीं उसके भीतर भी कुछ टूट कर
बहने लगा है .. जो पलकों से निकल बहते–बहते कपोलों
को भिगो गया है ... भरी गागर सर पर
रख खाली मन से चलते चलते वह ठिठक गयी देखा ,किनारे पर झाड़ियों में प्योंली के
पीले-पीले फूल खिल गए हैं | चटख रंग के फूलों ने मन को उमंगित कर दिया , ओह बसंत आ
गया !! साल बीत गया , पेड़ों पे फिर से नयी कोंपलें
फूटने लगीं, पीली प्योंली तू फिर खिल
गयी और मैं? मैं भी खिलूंगी, हाँ खिलूंगी मैं , मुरझाऊँगी नहीं मैं, तभी पदम् के पेड़ पर बैठी न्योली चहक उठी नीहू नीहू ,... कला के सपने जाग उठे, पंख फैलाकर उड़ने लगे| वह पढेगी, रुकी हुई पढाई को दुबारा शुरू करेगी, खुद डाक्टर नहीं बन पाई तो क्या , अपने बच्चों को खूब पढ़ाएगी
उन्हें डाक्टर जरूर बनाएगी | अपने बच्चों को ऊंच-नीच का डर नहीं दिखायेगी, उसकी आँखों में अब नव बसंत की सी
चमक थी |
जल्दी - जल्दी घर पहुँचकर उसने पानी से भरा गागर रसोई
में रखा , आले पर पड़ी कलम उठाई ,
पोस्टकार्ड लिया और अपने परदेशी पति को पत्र लिखने लगी | कागज
पे ढेरों फूल खिल उठे |
कमला निखुर्पा
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