Wednesday, May 28, 2014
Sunday, May 25, 2014
अलसाई भोर
आतिशी दोपहर
साँझ निर्झर।
अंबर पीत
सूरज सुनहरा
मन क्यों डरा?
साँझ निर्झर।
अंबर पीत
सूरज सुनहरा
मन क्यों डरा?
गर्मी केगीत
धूल नाचती फ़िरे
चौराहों पर।
धूल नाचती फ़िरे
चौराहों पर।
चिड़ियाहांफे
सूखे
तिनके से ही
सिर हैढाँपे।
सिर हैढाँपे।
बैरी सूरज
दिन भर जलाए
मन न भाए |
जलती धरा
गुस्साया है सूरज
बरसी आग |
प्यारी लागे
चाँद तारों से सजी
सांझ सुहानी |
चुप है तरु
अलसाई डालियाँ
सोई है हवा |
सूखी नदियाँ
इक बूंद को तरसी
प्यासी अँखियाँ |
सूखा है सुख
सूखने नहीं
देना
आँखों का पानी
नाच मयूरी
तेरे नाचने से ही
घिरे बदरी |
बुझती नहीं
जनम जनम की
पपीहा प्यास |
मन मटकी
भरे जो जतन से
बुझे है प्यास |
Monday, March 17, 2014
अब कहाँ वो होली ?
अब कहाँ वो होली ?
दिनांक १७-०३-२०१४
मार्च का महीना है ...आज होली का त्यौहार है ... मोबाईल में होली मनाई जा रही है (भई दो
दिनों से लगातार मोबाईल पर होली के एक से बढ़ के एक मैसेज, पिक्चर, और वीडियोज आ
रहे हैं), फेसबुक पर होली मन रही है | दनादन स्टेटस अपलोड हो रहे हैं, रंग-बिरंगे
मुस्कराते चेहरे और अबीर-गुलाल की थालियाँ स्क्रीन पे सजी हुई है| घर का सबसे
महत्वपूर्ण सदस्य, जिसके पास कोई न कोई हमेशा बैठा रहता है अरे वही अपना बुद्धू
बक्सा (टीवी), वो भी आज होली के गीत सुना रहा है|
बस एक
मैं ही हूँ जो बार-बार खिड़की से बाहर
झांककर देख रही हूँ | सड़क पर इक्का-दुक्का लोग नजर आ रहें हैं, कोई कार में सरपट
भाग रहा है तो कोई स्कूटी में दुपट्टा लहराते हुए उड़ रही है | सामने के घरों में
कुछ बच्चे गुब्बारे और पिचकारियों से खेल रहे हैं | मेरे घर भी कुछ मित्र और
सहकर्मी आए , औपचारिक सी शुभकामना देकर , टीका लगाकर चले गए , सब कुछ फीका फीका सा
| मन अभी भी उदास है अभी भी मेरी आँखें ढूँढ़ रही हैं हुरियारों की टोली को...जो
बसंत पंचमी से होली की बैठक जमा लेती थी | केवल रंगों से नहीं संगीत के रागों से
भी होली खेलती थी | हारमोनियम, ढोलक, तबला लेकर शास्त्रीय राग धमार से होली का
आह्वान करते हुए राग भैरवी से समापन करती
थी | बसंत पंचमी को भक्तिमय गीतों से
प्रारंभ हुई होली शिवरात्रि तक श्रृंगार रस में भीग जाती थी और मदमस्त होकर झूम
उठाते थे होल्यार ..
१-जल कैसे भरूँ जमुना गहरी
ठाड़े भरूँ राजा राम देखत हैं
बैठे भरूँ जमुना गहरी
जल कैसे भरूँ
जमुना गहरी
हुरियारों
की टोली.. गाँव में होली गाते हुए प्रवेश करती थी .. कोई स्वांग धरकर आया है घूंघट
डालकर मूँछों को छुपा रहा है तो कोई बड़ी सी तोंद बनाकर नाच रहा है | गोल घेरे में
खड़े होकर एक ताल में होली गाते हुए नाच रहे हैं |
२- हो हो हो मोहन गिरधारी , हाँ हाँ हाँ मोहन गिरधारी
ऐसो अनाड़ी चुनर गयो फाड़ी, हँसी हँसी दे गयो मोहे
गारी
हाँ हाँ
हाँ मोहन गिरधारी, हो हो हो मोहन गिरधारी
सफ़ेद कुरते पजामे और टोपी में सजे हुरियार,
जिन्हें हम पहाड़ी में ‘होल्यार’ कहते थे,
जिनके ढप की थाप, ढोलक की धमक और होली है...है है
की गूंज सबको रोमांचित कर देती थी , हर कोई घर से बाहर आने को मजबूर हो
जाता था |बाहर आते ही सब एक रंग में रंग जाते थे ... होली का रंग, मिलन का रंग और
खुशी-आनंद का रंग |
आँगन
में होल्यार झूम झूम के गा रहे हैं , खिड़कियों, छतों से होल्यारों पर रंगों की
बौछार हो रही है | हँसी-ठिठोली और एक दूसरे को भिगो देने की चाह ... पक्के रंग में
रंग देने की कामना ... यूँ लगता है नेह का समंदर उमड़ रहा हो ...बच्चों का उत्साह
तो निराला है| कोई अपनी नन्ही हथेलियों को
रंगे है, किसी ने मुठ्ठी में गुलाल छुपाया है तो कोई पिचकारी की धार से सराबोर कर
देना चाहता है | इसी बीच होल्यारो के लिए
चाय, नाश्ता , सौंफ और सुपारी के साथ पेश
किया जाता है| छककर सब, होली है..... के
उद्घोष के साथ अगले घर की ओर बढ़ जाते हैं एक और
नई उमंग के साथ |
कहाँ गयी वो होली ... जहाँ मैं दादा की गोद में
बैठकर उनके गुरु गंभीर स्वर में बैठकी होली सुनती थी....
शिवजी चले गोकुल नगरी ... शिवजी चले गोकुल नगरी ...
आज भी लगता है अभी अभी चाचाजी ने कान में गाया है
झुकि आयो शहर में व्योपारी ,
इस व्योपारी को भूख बहुत है
पुरिया पका दे नथ वारी
झुकि आयो शहर में व्योपारी
आज होली, बस स्क्रीन पर है , (टीवी का स्क्रीन, मोबाईल का स्क्रीन, कंप्यूटर का स्क्रीन) | हमारे जीवन से होली विदा हो रही है बाकी सभी विरासतों की तरह ... रह गए है बस जहरीले रसायनों वाले रंग , जिनका जहर हमारे मन के जहर से तो शायद कम ही होगा |
आज होली, बस स्क्रीन पर है , (टीवी का स्क्रीन, मोबाईल का स्क्रीन, कंप्यूटर का स्क्रीन) | हमारे जीवन से होली विदा हो रही है बाकी सभी विरासतों की तरह ... रह गए है बस जहरीले रसायनों वाले रंग , जिनका जहर हमारे मन के जहर से तो शायद कम ही होगा |
कमला १७-०३-२०१४
Tuesday, February 25, 2014
दरकते खेत पहाड़ों के
ये खेतों की सीढियां गवाह हैं ...
एक ही सांस में, जाने किस आश में....
पूरा पहाड़ चढ़ जाती पहाड़न के पैरों की बिवाई को ...
रोज छूती हैं ये सीढियाँ खेतों की ...
ये गवाह है पैरों
में चुभते काँटों की ....
माथे से छलकती
बूंदों की ...
जिसमें कभी आँखों
का नमकीन पानी भी मिल जाता है ....
ढलती सांझ के सूरज की तरह...
किसी के आने की आश की रोशनी भी ....
पहाड़ के उस पार जाकर ढल जाती है...
रोज की तरह ...
धूप भी आती है तो
मेहमान की तरह
कुछ घड़ी के लिए ..
पर तुम नहीं आते
...
जिसकी राह ताकती हैं रोज ये सीढियां खेतों की ...
जिसकी मेढ़ पे
किसी के पैर का एक बिछुवा गिरा है ...
किसी के काँटों
बिंधे क़दमों से एक सुर्ख कतरा गिरा है ...
कितनी बार दरकी
है... टूटी है.. ये सीढियां खेतों की ...
ये पीढियां शहरों
की ....कब जानेंगी ?
कमला 31-01-2014
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