Saturday, October 24, 2009

1-छुअन

कमला निखुर्पा

अतृप्त आकुल चिर तृषित मानव !

छूने को व्याकुल क्यों नश्वर तन ?

स्पर्श सुख विह्वल हे मानव !

अनजान रही क्यों मन की तड़पन ?

क्षणभंगुर तन का स्पर्श क्यों बारम्बार

छूकर देखो रे मन को इक बार।

झंकृत होंगे मन- वीणा के तार

गुंजित सप्त सुरों की झनकार।

मन-कमल की बंद पंखुडि़याँ

शनै: शनै: खुल जाएँगी

जाने अनजाने कहे अनकहे

सभी राज खुल जाएँगे।

तन का मिलन बस पार्थिव मिलन

मिटेगी न कभी मन की उलझन

मन -मिलन में हम तुम हर क्षण

मिलते ही जाएँगे।

राहों में नित नवीन प्रसून

खिलते महकते जाएँगे।

अपलक नयनों से होगा जब

अगणित पावन मूक संभाषण

मौन दृष्टि करेगी हर क्षण

युगों युगों तक प्रणय- निवेदन।

अस्थि चर्ममय नश्वर तन जब

जलकर नष्ट हो जाएगा।

प्रेमरस परिपूरित मन तब भी

निज परिमल बिखराएगा।

वीरान मंदिर, सुनसान मरुस्थल

फिर मधुवन बन जाएगा

गुंजित मुखरित हो जाएगा।

कहीं कोई रांझा कहीं कोई ढोला

फिर गीत प्रेम के गाएगा।

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