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Friday, November 19, 2010

डोकराजी को सलाम



रंग- रंगीली पगड़ी सिर पे
आँखों में लरजता प्यार है।

झुर्रियों से भरा चेहरा तेरा
कहता अनुभव अपार है।

तेरे उन्मुक्त हँसी के ठहाके
हर आँगन की शान है।

ये वृद्ध-बुजुर्ग नमन तुम्हें
तू भारत की शान है।

बडी–बडी नुकीली मूँछों में
छुपी मीठी मुसकान है।

बटुआ तेरा खाली–खाली सा
पर मन सोने की खान है।

ये वृद्ध बुजुर्ग नमन तुम्हें
तू भारत की शान है।

अनजाना है गाँव तेरा
लगता है मुझको अपना- सा।

ये लहराते हरे खेत
लगता है ये इक सपना –सा ।

मरुभूमि सिंचित तेरे पसीने से
तुझको मेरा प्रणाम है।

ये वृद्ध बुजुर्ग नमन तुम्हें
तू भारत की शान है।

शायद तुझमें ही छुपा हुआ
मेरा प्यारा हिन्दुस्तान है।

तेरे गाँव की मिट्टी से ही
मेरा भारत महान है।

--------.
डोकरा= बूढ़ा

द्वारा- कमला

Sunday, August 22, 2010

कुछ कहना चाहूँगी मै

सुनो .....

कुछ कहना चाहूँगी मै
गुन्जनरत भंवरों से
बौराई मंजरियों से
महकती कलियों से
बिखर जाए मधु पराग कण
विस्तृत धरा में
नील अंबर में
सतरंगी इन्द्रधनुषी आभा में
खिल उठे हर चेहरा हर दृष्टि
मधुमय हो जाए यह सृष्टि
पुष्पित अरविन्द की तरह ........

कुछ कहना चाहूंगी मैं
घिरती घटाओं से
सावन की फुहारों से
गूँज उठे स्वर लहरी मेरी
व्याकुल पपीहे की तरह
बरसे रसधार प्रेम फुहार
चहुँ दिशि चहुँ ओर
बारिश की तरह .....


धरती की पुकार :

                                                          
               -कमला निखुर्पा                                                      
                                               
तपती धरती कहती अंबर के
कानों में बन पपीहे की पुकार।
पीहू पीहू ओ प्रियतम मेरे!
बरसाओ अमृत रसधार।
सुनकर धरा की करुण पुकार
घिर आए श्यामल मेघ गगन में,
बाहें फैलाए क्षितिज के पार।
उमड़ घुमड़ घनघोर, मचाकर रौरव शोर
बरसाकर बूँदों की रिमझिम फुहार ।
अंबर नटखट दूर क्षितिज से,
 निहारे प्रिया को बारम्बार।
जल बूँदों के स्पर्श से सिहर उठी यूँ वसुधा।
पुलकित तन , नवअंकुरित हरित तृण
रोमावलि से उठे लहलहा।
फिर बह चली सुगंधित मंद बयार
तो धरा का रक्तिम किसलय अंचल लहराया।
धानी चूनर ओढ़कर क्यों
 चंचल मन फिर से मुसकाया?
झील की नीली आंखों से,
एकटक निहार प्रियतम अंबर को
दूर गगन में मेघ देख क्यों
व्याकुल मन फिर शरमाया ?
सद्यस्नाता धरा ने ली,
तृप्ति भरी इक गहरी साँस।
महक उठी  हवा भी कुछ,
कुसुमित हुआ जीवन प्रभात
सुरभित हुई दिशाएँ भी और
पल्लवित नवजीवन की आस।



                                                       
कमला निखुर्पा
स्नातकोत्तर शिक्षिका (हिन्दी),
केन्द्रीय विद्यालय वन अनुसंधान संस्थान
देहरादून (उत्तराखंड

Saturday, October 24, 2009

अरमानों की पोटली

कमला निखुर्पा

चाहती हूँ मैं

रख दूँ अरमानों की पोटली को, दूर किसी कोने में

झटक दूँ सारी पीड़ाएँ,

सारी चिंताएँ

खो जाऊँ, कहीं गुम हो जाऊँ दुनिया की भीड़ में

पर नहीं हो पाता ये

बारबार खोलती हूं अरमानों की पोटली को

सहेजती हूँ बिखराव को

रोकती हूँ भटकाव को

पर क्या करूँ, उन रंगबिरंगे ख्वाबों का ?

जो बार बार सपनों में आकर

जगा देते हैं मुझे

क्या करूँ उन आहों का?

जो मन की घाटियों में गूँजकर

रुला देते हैं मुझे

नहीं रोक पाती मैं बिखराव को

नहीं रोक पाती मैं भटकाव को

बार बार सहेजती हूँ अरमानों की गठरी को

गाँठ संयम की लगाकर

धर देती हूँ दूर किसी कोने में

पर अचानक झाँकने लगता है गठरी से

ख्वाब का इक रंगीन टुकड़ा

अपने अस्तित्व का पल पल कराता है एहसास

बुलाता मुझे वो बार बार अपने पास

नहीं रोक पाती मैं खुद को

फिर खुल जाती है गाँठ संयम की

फिर बिखर जाती है पोटली अरमानों की

बजने लगती है घंटियाँ

कहीं दूर मन के मंदिर में

बहने लगती है पुरवाई

कोरे कागज के खेतों में

चल पड़ती है कलम मेरी

इक अनजाने सफर में

जगने लगते हैं अरमान

फिर जिंदगी में......

गुरु


गुरु कुम्हार है।
गलाए , तपाए
अनगढ़ घट को बनाए
सुघड़ सलोना,
कच्ची मिट्टी को दिया अद्भुत आधार है।
गुरु कुम्हार है।

गुरु मूर्तिकार है।
निखारे
तराशे
अनगढ़ शिलाओं पर 
उभारे सुन्दर मूर्तियाँ
बनाए सजीव कलाकृतियाँ
कैसा चमत्कार है ?
गुरु मूर्तिकार है।

गुरु बाग़वान है।
बोए, सींचे
जीवन की बगिया में फूल महकाए,
पतझड़ में भी नव बसंत ले आए,
जीवन बना कितना सुंदर उद्यान है ?
गुरु बाग़वान है।

कमला निखुर्पा

परंपरा


i-जनकनंदिनी सीता

क्यों दी तुमने अग्नि परीक्षा?

कि युगों बाद आज भी

यही परंपरा निभाई जा रही,

पहले चिता को सजाकर सीता

सती बनाई जाती रही,

और अब

दहेज के लिए रोज

कई सीताएँ जलाई जा रहीं।

ii-मैथिली

मिथिला की राजकुमारी तुम!

क्यों सहे तुमने कष्ट वनवास के

क्यों वर्षों तक वन में

नंगे पांव कांटों पर चलती रही तुम?

कि हर युग में हर कदम पर

नारी को काँटों का उपहार ही मिला।

अपने घर पर रहकर भी

उसने केवल वनवास ही जिया।

iii-वैदेही

तुम्हें नहीं मालूम?

बदल चुकी है अब

देह की परिभाशा

घुट-घुटकर घर में रोती हैं

आज अनुसूया, अहिल्या

सभ्यता के रुपहले पर्दे पर

नग्न नृत्य करतीं हैं

शूर्पनखा और ताड़का।

iv-जगत्- जननी सीता

क्यों दी तुमने अग्नि परीक्षा?

कि वासना के विमान पर सवार होकर

दसों दिशाओं से दशानन

अट्टहास कर रहा है।

हर घर में सीता के लिए

अविश्वास, असुरक्षा का अग्निकुंड सजा रहा है।

v-जानकी

जने थे तुमने वीर पुत्र,

वीर प्रसू थी तुम

फिर भी नहीं रोक पाए वे

धरती के गर्भ में समाती

अपनी जननी को

तभी तो आज भी

यही परंपरा निभाई जा रही है।

नन्हीं अजन्मी सीताएँ,

माँ की कोख से छीनकर

धरती के गर्भ में दफनाई जा रहीं हैं।

युगों युगों से क्यों यही

परंपरा निभाई जा रही है।

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1-छुअन

कमला निखुर्पा

अतृप्त आकुल चिर तृषित मानव !

छूने को व्याकुल क्यों नश्वर तन ?

स्पर्श सुख विह्वल हे मानव !

अनजान रही क्यों मन की तड़पन ?

क्षणभंगुर तन का स्पर्श क्यों बारम्बार

छूकर देखो रे मन को इक बार।

झंकृत होंगे मन- वीणा के तार

गुंजित सप्त सुरों की झनकार।

मन-कमल की बंद पंखुडि़याँ

शनै: शनै: खुल जाएँगी

जाने अनजाने कहे अनकहे

सभी राज खुल जाएँगे।

तन का मिलन बस पार्थिव मिलन

मिटेगी न कभी मन की उलझन

मन -मिलन में हम तुम हर क्षण

मिलते ही जाएँगे।

राहों में नित नवीन प्रसून

खिलते महकते जाएँगे।

अपलक नयनों से होगा जब

अगणित पावन मूक संभाषण

मौन दृष्टि करेगी हर क्षण

युगों युगों तक प्रणय- निवेदन।

अस्थि चर्ममय नश्वर तन जब

जलकर नष्ट हो जाएगा।

प्रेमरस परिपूरित मन तब भी

निज परिमल बिखराएगा।

वीरान मंदिर, सुनसान मरुस्थल

फिर मधुवन बन जाएगा

गुंजित मुखरित हो जाएगा।

कहीं कोई रांझा कहीं कोई ढोला

फिर गीत प्रेम के गाएगा।

2-प्रकृति में खो जाएँ:

कमला निखुर्पा

काश कभी वो दिन भी आए

भूल सभी को हम तुम साथी

दूर प्रकृति में खो जाएँ

विराट सृष्टि के हो जाएँ।

मंद -मंद बह रहा अनिल हो

झरने का मृदु कलकल रव हो

हिमशिखरों में सूरज चमके

प्रतिबिम्बित नीलाभ झील में

रेगबिरंगी मधुमय छवि हो

भौरों के गुन -गुन गुंजन को

स्वर अपना हम देकर गाएँ

भूल सभी को हम तुम साथी

दूर प्रकृति में खो जाएँ

बैठे हों सागर के तीरे

लहरों को गिनते रह जाएँ

रवि की आभा देखें एकटक

और सपनों में खो जाएँ

जब सूरज ढल जाए साथी

पंछी गीत मिलन के गाएँ

अंबर में चंदा मुस्काए

पपीहा करुण पुकार लगाए।

सर्पीली पगडंडी पर हम

थामे एक दूजे का हाथ।

निकल पड़ें नीरव रजनी में

कभी न छूटे अपना साथ।

चलते- चलते हम-तुम दोनों

दूर सितारों तक हो आएँ।

काश कभी वो दिन भी आए

भूल सभी को हम तुम साथी

दूर प्रकृति में खो जाएँ

विराट सृष्टि के हो जाएँ।

3-प्रवासी का ग्रीष्मावकाश

कमला निखुर्पा

तप्त दाहक मरुस्थल को छोड़

चल पड़ी मैं हिमशिखरों की ओर

जन्मभूमि वह मेरी प्यारी

कर्मभूमि वह मेरी न्यारी

मातृमिलन को उत्कंठित, पहुँची मैं हिमशिखरों की ओर............................

प्रातकाल की स्वर्णिम बेला में

पलपल रंग बदले हिमालय

कभी दुग्ध धवल, कभी सोने-सा

स्वर्णिम छटा दिखाए हिमालय

कितना स्वप्निल, कितना रमणीक,

इसका न कहीं ओरछोर

खो गई रे मैं तो निहार के, इन उज्ज्वल हिमशिखरों की ओर..............................

ओस कणों की माला पहने

सद्यस्नाता हरी चूनर ओढ़े

कोहरे के घूँघट को सरका

माथे रवि- बिंदिया को चमका

प्रकृति यहाँ बनती चितचोर

रम गया रे मन मेरा फिर से, निर्मल गिरिशिखरों की ओर......................................

जानेपहचाने हैं पथ और पंथी

आन मिले सब साथीसंगी

कितने प्यारे चेहरे गोरे गोलमटोल

कितनी प्यारी बातें सुन मैं हुई विभोर

देख यहाँ की अनुपम आभा

नयन मेरे बन गए चकोर

काश! कभी ना जाऊँ मैं इन शीतल हिमशिखरों को छोड़

हर बार जनम लूँ इसी धरा पर, प्रभु से प्रार्थना है कर जोड़.....................................