Saturday, October 24, 2009

5-अच्छी हो तुम: कमला

कमला निखुर्पा

मुझे भाती हो तुम

अच्छी लगती हो,

क्योंकि...

तुम घबराती नहीं

समाज के दिए निर्मम संबोधनों से

क्योंकि...

तुम आत्मसमर्पण नहीं करती हो

लड़ती हो...

अपनी ढाल स्वयं बनकर

दृढ बन जाती हो चट्टान सी...

मुझे अच्छी लगती हो तुम

तुम्हारी नजरें भी...

जो पहचान लेती है वासना के कीड़ों को

जो तारीफों के  पुल बाँधकर 

कानों में बजबजाते हैं

मौक़ा मिलते ही ,

खा जाते हैं संपूर्ण तनमन

छोड़ जाते हैं..वीभत्स सड़ांध |

मुझे बहुत अच्छी लगती हो तुम

तुम्हारी आधुनिकता भी

क्योंकि तुम बनाती हो अपना मार्ग स्वयं

नहीं चलती उस राह पर जो पुरुषों ने बनाई हैं

केवल अपनी सुविधा के लिए

जहाँ कभी वह इंद्र बनकर छलते हैं...

कभी गौतम बनकर श्राप दे देते हैं...

सदियों तक कराते हैं प्रतीक्षा श्रीराम की 

शक्तिस्वरूपा नारी को बेचारी बना देते हैं

मुझे सबसे अच्छी लगती हो तुम

तुम्हारा आत्मविश्वास भी...

कि तुम छले जाने पर भी आत्महत्या नहीं करती

फाँसी का फंदा तलाश नहीं करती

बल्कि उठ खड़ी होती हो दुगने  जोश से

निराशा को झटककर...

आँसुओं को पटककर...

चल पड़ती हो उस राह पर फिर से

जो बनाई थी तुमने स्वयं अपने लिए

क्योंकि...

सबको ये बताना है अभी तुम्हें

पूँजी नहीं हो तुम किसी की,

ना  ही हो गुलाम 

चारदीवारी में  घुट- घुटकर नहीं जीना  है तुम्हें

निकलकर बाहर फिर से लड़ना है तुम्हें

अपने अस्तित्व पर

अपने व्यक्तित्व पर 

अपने नारीत्व पर

केवल, हाँ केवल तुम्हारा अपना अधिकार है

ये जताना है तुम्हें !

हाँ ये बताना है तुम्हे !

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