Saturday, October 24, 2009

2-प्रकृति में खो जाएँ:

कमला निखुर्पा

काश कभी वो दिन भी आए

भूल सभी को हम तुम साथी

दूर प्रकृति में खो जाएँ

विराट सृष्टि के हो जाएँ।

मंद -मंद बह रहा अनिल हो

झरने का मृदु कलकल रव हो

हिमशिखरों में सूरज चमके

प्रतिबिम्बित नीलाभ झील में

रेगबिरंगी मधुमय छवि हो

भौरों के गुन -गुन गुंजन को

स्वर अपना हम देकर गाएँ

भूल सभी को हम तुम साथी

दूर प्रकृति में खो जाएँ

बैठे हों सागर के तीरे

लहरों को गिनते रह जाएँ

रवि की आभा देखें एकटक

और सपनों में खो जाएँ

जब सूरज ढल जाए साथी

पंछी गीत मिलन के गाएँ

अंबर में चंदा मुस्काए

पपीहा करुण पुकार लगाए।

सर्पीली पगडंडी पर हम

थामे एक दूजे का हाथ।

निकल पड़ें नीरव रजनी में

कभी न छूटे अपना साथ।

चलते- चलते हम-तुम दोनों

दूर सितारों तक हो आएँ।

काश कभी वो दिन भी आए

भूल सभी को हम तुम साथी

दूर प्रकृति में खो जाएँ

विराट सृष्टि के हो जाएँ।

3-प्रवासी का ग्रीष्मावकाश

कमला निखुर्पा

तप्त दाहक मरुस्थल को छोड़

चल पड़ी मैं हिमशिखरों की ओर

जन्मभूमि वह मेरी प्यारी

कर्मभूमि वह मेरी न्यारी

मातृमिलन को उत्कंठित, पहुँची मैं हिमशिखरों की ओर............................

प्रातकाल की स्वर्णिम बेला में

पलपल रंग बदले हिमालय

कभी दुग्ध धवल, कभी सोने-सा

स्वर्णिम छटा दिखाए हिमालय

कितना स्वप्निल, कितना रमणीक,

इसका न कहीं ओरछोर

खो गई रे मैं तो निहार के, इन उज्ज्वल हिमशिखरों की ओर..............................

ओस कणों की माला पहने

सद्यस्नाता हरी चूनर ओढ़े

कोहरे के घूँघट को सरका

माथे रवि- बिंदिया को चमका

प्रकृति यहाँ बनती चितचोर

रम गया रे मन मेरा फिर से, निर्मल गिरिशिखरों की ओर......................................

जानेपहचाने हैं पथ और पंथी

आन मिले सब साथीसंगी

कितने प्यारे चेहरे गोरे गोलमटोल

कितनी प्यारी बातें सुन मैं हुई विभोर

देख यहाँ की अनुपम आभा

नयन मेरे बन गए चकोर

काश! कभी ना जाऊँ मैं इन शीतल हिमशिखरों को छोड़

हर बार जनम लूँ इसी धरा पर, प्रभु से प्रार्थना है कर जोड़.....................................

4-धरती की पुकार

कमला निखुर्पा

तपती धरती कहती अंबर के

कानों में बन पपीहे की पुकार।

पीहू पीहू ओ प्रियतम मेरे! बरसाओ अमृत रसधार।

सुनकर धरा की करुण पुकार

घिर आए श्यामल मेघ गगन में, बाहें फैलाए क्षितिज के पार।

उमड़ घुमड़ घनघोर, मचाकर रौरव शोर

बरसाकर बूँदों की रिमझिम फुहार ।

अंबर नटखट दूर क्षितिज से, निहारे प्रिया को बारम्बार।

जल बूँदों के स्पर्श से सिहर उठी यूँ वसुधा।

पुलकित तन , नवअंकुरित हरित तृण

रोमावलि से उठे लहलहा।

फिर बह चली सुगंधित मंद बयार

तो धरा का रक्तिम किसलय अंचल लहराया।

धानी चूनर ओढ़कर क्यों चंचल मन फिर से मुसकाया?

झील की नीली आंखों से, एकटक निहार प्रियतम अंबर को

दूर गगन में मेघ देख क्यों व्याकुल मन फिर शरमाया ?

सद्यस्नाता धरा ने ली, तृप्ति भरी इक गहरी साँस।

महक उठी हवा भी कुछ,

कुसुमित हुआ जीवन प्रभात

सुरभित हुई दिशाएँ भी और

पल्लवित नवजीवन की आस।

5-अच्छी हो तुम: कमला

कमला निखुर्पा

मुझे भाती हो तुम

अच्छी लगती हो,

क्योंकि...

तुम घबराती नहीं

समाज के दिए निर्मम संबोधनों से

क्योंकि...

तुम आत्मसमर्पण नहीं करती हो

लड़ती हो...

अपनी ढाल स्वयं बनकर

दृढ बन जाती हो चट्टान सी...

मुझे अच्छी लगती हो तुम

तुम्हारी नजरें भी...

जो पहचान लेती है वासना के कीड़ों को

जो तारीफों के  पुल बाँधकर 

कानों में बजबजाते हैं

मौक़ा मिलते ही ,

खा जाते हैं संपूर्ण तनमन

छोड़ जाते हैं..वीभत्स सड़ांध |

मुझे बहुत अच्छी लगती हो तुम

तुम्हारी आधुनिकता भी

क्योंकि तुम बनाती हो अपना मार्ग स्वयं

नहीं चलती उस राह पर जो पुरुषों ने बनाई हैं

केवल अपनी सुविधा के लिए

जहाँ कभी वह इंद्र बनकर छलते हैं...

कभी गौतम बनकर श्राप दे देते हैं...

सदियों तक कराते हैं प्रतीक्षा श्रीराम की 

शक्तिस्वरूपा नारी को बेचारी बना देते हैं

मुझे सबसे अच्छी लगती हो तुम

तुम्हारा आत्मविश्वास भी...

कि तुम छले जाने पर भी आत्महत्या नहीं करती

फाँसी का फंदा तलाश नहीं करती

बल्कि उठ खड़ी होती हो दुगने  जोश से

निराशा को झटककर...

आँसुओं को पटककर...

चल पड़ती हो उस राह पर फिर से

जो बनाई थी तुमने स्वयं अपने लिए

क्योंकि...

सबको ये बताना है अभी तुम्हें

पूँजी नहीं हो तुम किसी की,

ना  ही हो गुलाम 

चारदीवारी में  घुट- घुटकर नहीं जीना  है तुम्हें

निकलकर बाहर फिर से लड़ना है तुम्हें

अपने अस्तित्व पर

अपने व्यक्तित्व पर 

अपने नारीत्व पर

केवल, हाँ केवल तुम्हारा अपना अधिकार है

ये जताना है तुम्हें !

हाँ ये बताना है तुम्हे !