Saturday, October 24, 2009

गुरु


गुरु कुम्हार है।
गलाए , तपाए
अनगढ़ घट को बनाए
सुघड़ सलोना,
कच्ची मिट्टी को दिया अद्भुत आधार है।
गुरु कुम्हार है।

गुरु मूर्तिकार है।
निखारे
तराशे
अनगढ़ शिलाओं पर 
उभारे सुन्दर मूर्तियाँ
बनाए सजीव कलाकृतियाँ
कैसा चमत्कार है ?
गुरु मूर्तिकार है।

गुरु बाग़वान है।
बोए, सींचे
जीवन की बगिया में फूल महकाए,
पतझड़ में भी नव बसंत ले आए,
जीवन बना कितना सुंदर उद्यान है ?
गुरु बाग़वान है।

कमला निखुर्पा

परंपरा


i-जनकनंदिनी सीता

क्यों दी तुमने अग्नि परीक्षा?

कि युगों बाद आज भी

यही परंपरा निभाई जा रही,

पहले चिता को सजाकर सीता

सती बनाई जाती रही,

और अब

दहेज के लिए रोज

कई सीताएँ जलाई जा रहीं।

ii-मैथिली

मिथिला की राजकुमारी तुम!

क्यों सहे तुमने कष्ट वनवास के

क्यों वर्षों तक वन में

नंगे पांव कांटों पर चलती रही तुम?

कि हर युग में हर कदम पर

नारी को काँटों का उपहार ही मिला।

अपने घर पर रहकर भी

उसने केवल वनवास ही जिया।

iii-वैदेही

तुम्हें नहीं मालूम?

बदल चुकी है अब

देह की परिभाशा

घुट-घुटकर घर में रोती हैं

आज अनुसूया, अहिल्या

सभ्यता के रुपहले पर्दे पर

नग्न नृत्य करतीं हैं

शूर्पनखा और ताड़का।

iv-जगत्- जननी सीता

क्यों दी तुमने अग्नि परीक्षा?

कि वासना के विमान पर सवार होकर

दसों दिशाओं से दशानन

अट्टहास कर रहा है।

हर घर में सीता के लिए

अविश्वास, असुरक्षा का अग्निकुंड सजा रहा है।

v-जानकी

जने थे तुमने वीर पुत्र,

वीर प्रसू थी तुम

फिर भी नहीं रोक पाए वे

धरती के गर्भ में समाती

अपनी जननी को

तभी तो आज भी

यही परंपरा निभाई जा रही है।

नन्हीं अजन्मी सीताएँ,

माँ की कोख से छीनकर

धरती के गर्भ में दफनाई जा रहीं हैं।

युगों युगों से क्यों यही

परंपरा निभाई जा रही है।

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1-छुअन

कमला निखुर्पा

अतृप्त आकुल चिर तृषित मानव !

छूने को व्याकुल क्यों नश्वर तन ?

स्पर्श सुख विह्वल हे मानव !

अनजान रही क्यों मन की तड़पन ?

क्षणभंगुर तन का स्पर्श क्यों बारम्बार

छूकर देखो रे मन को इक बार।

झंकृत होंगे मन- वीणा के तार

गुंजित सप्त सुरों की झनकार।

मन-कमल की बंद पंखुडि़याँ

शनै: शनै: खुल जाएँगी

जाने अनजाने कहे अनकहे

सभी राज खुल जाएँगे।

तन का मिलन बस पार्थिव मिलन

मिटेगी न कभी मन की उलझन

मन -मिलन में हम तुम हर क्षण

मिलते ही जाएँगे।

राहों में नित नवीन प्रसून

खिलते महकते जाएँगे।

अपलक नयनों से होगा जब

अगणित पावन मूक संभाषण

मौन दृष्टि करेगी हर क्षण

युगों युगों तक प्रणय- निवेदन।

अस्थि चर्ममय नश्वर तन जब

जलकर नष्ट हो जाएगा।

प्रेमरस परिपूरित मन तब भी

निज परिमल बिखराएगा।

वीरान मंदिर, सुनसान मरुस्थल

फिर मधुवन बन जाएगा

गुंजित मुखरित हो जाएगा।

कहीं कोई रांझा कहीं कोई ढोला

फिर गीत प्रेम के गाएगा।

2-प्रकृति में खो जाएँ:

कमला निखुर्पा

काश कभी वो दिन भी आए

भूल सभी को हम तुम साथी

दूर प्रकृति में खो जाएँ

विराट सृष्टि के हो जाएँ।

मंद -मंद बह रहा अनिल हो

झरने का मृदु कलकल रव हो

हिमशिखरों में सूरज चमके

प्रतिबिम्बित नीलाभ झील में

रेगबिरंगी मधुमय छवि हो

भौरों के गुन -गुन गुंजन को

स्वर अपना हम देकर गाएँ

भूल सभी को हम तुम साथी

दूर प्रकृति में खो जाएँ

बैठे हों सागर के तीरे

लहरों को गिनते रह जाएँ

रवि की आभा देखें एकटक

और सपनों में खो जाएँ

जब सूरज ढल जाए साथी

पंछी गीत मिलन के गाएँ

अंबर में चंदा मुस्काए

पपीहा करुण पुकार लगाए।

सर्पीली पगडंडी पर हम

थामे एक दूजे का हाथ।

निकल पड़ें नीरव रजनी में

कभी न छूटे अपना साथ।

चलते- चलते हम-तुम दोनों

दूर सितारों तक हो आएँ।

काश कभी वो दिन भी आए

भूल सभी को हम तुम साथी

दूर प्रकृति में खो जाएँ

विराट सृष्टि के हो जाएँ।