Saturday, October 24, 2009

अरमानों की पोटली

कमला निखुर्पा

चाहती हूँ मैं

रख दूँ अरमानों की पोटली को, दूर किसी कोने में

झटक दूँ सारी पीड़ाएँ,

सारी चिंताएँ

खो जाऊँ, कहीं गुम हो जाऊँ दुनिया की भीड़ में

पर नहीं हो पाता ये

बारबार खोलती हूं अरमानों की पोटली को

सहेजती हूँ बिखराव को

रोकती हूँ भटकाव को

पर क्या करूँ, उन रंगबिरंगे ख्वाबों का ?

जो बार बार सपनों में आकर

जगा देते हैं मुझे

क्या करूँ उन आहों का?

जो मन की घाटियों में गूँजकर

रुला देते हैं मुझे

नहीं रोक पाती मैं बिखराव को

नहीं रोक पाती मैं भटकाव को

बार बार सहेजती हूँ अरमानों की गठरी को

गाँठ संयम की लगाकर

धर देती हूँ दूर किसी कोने में

पर अचानक झाँकने लगता है गठरी से

ख्वाब का इक रंगीन टुकड़ा

अपने अस्तित्व का पल पल कराता है एहसास

बुलाता मुझे वो बार बार अपने पास

नहीं रोक पाती मैं खुद को

फिर खुल जाती है गाँठ संयम की

फिर बिखर जाती है पोटली अरमानों की

बजने लगती है घंटियाँ

कहीं दूर मन के मंदिर में

बहने लगती है पुरवाई

कोरे कागज के खेतों में

चल पड़ती है कलम मेरी

इक अनजाने सफर में

जगने लगते हैं अरमान

फिर जिंदगी में......

गुरु


गुरु कुम्हार है।
गलाए , तपाए
अनगढ़ घट को बनाए
सुघड़ सलोना,
कच्ची मिट्टी को दिया अद्भुत आधार है।
गुरु कुम्हार है।

गुरु मूर्तिकार है।
निखारे
तराशे
अनगढ़ शिलाओं पर 
उभारे सुन्दर मूर्तियाँ
बनाए सजीव कलाकृतियाँ
कैसा चमत्कार है ?
गुरु मूर्तिकार है।

गुरु बाग़वान है।
बोए, सींचे
जीवन की बगिया में फूल महकाए,
पतझड़ में भी नव बसंत ले आए,
जीवन बना कितना सुंदर उद्यान है ?
गुरु बाग़वान है।

कमला निखुर्पा

परंपरा


i-जनकनंदिनी सीता

क्यों दी तुमने अग्नि परीक्षा?

कि युगों बाद आज भी

यही परंपरा निभाई जा रही,

पहले चिता को सजाकर सीता

सती बनाई जाती रही,

और अब

दहेज के लिए रोज

कई सीताएँ जलाई जा रहीं।

ii-मैथिली

मिथिला की राजकुमारी तुम!

क्यों सहे तुमने कष्ट वनवास के

क्यों वर्षों तक वन में

नंगे पांव कांटों पर चलती रही तुम?

कि हर युग में हर कदम पर

नारी को काँटों का उपहार ही मिला।

अपने घर पर रहकर भी

उसने केवल वनवास ही जिया।

iii-वैदेही

तुम्हें नहीं मालूम?

बदल चुकी है अब

देह की परिभाशा

घुट-घुटकर घर में रोती हैं

आज अनुसूया, अहिल्या

सभ्यता के रुपहले पर्दे पर

नग्न नृत्य करतीं हैं

शूर्पनखा और ताड़का।

iv-जगत्- जननी सीता

क्यों दी तुमने अग्नि परीक्षा?

कि वासना के विमान पर सवार होकर

दसों दिशाओं से दशानन

अट्टहास कर रहा है।

हर घर में सीता के लिए

अविश्वास, असुरक्षा का अग्निकुंड सजा रहा है।

v-जानकी

जने थे तुमने वीर पुत्र,

वीर प्रसू थी तुम

फिर भी नहीं रोक पाए वे

धरती के गर्भ में समाती

अपनी जननी को

तभी तो आज भी

यही परंपरा निभाई जा रही है।

नन्हीं अजन्मी सीताएँ,

माँ की कोख से छीनकर

धरती के गर्भ में दफनाई जा रहीं हैं।

युगों युगों से क्यों यही

परंपरा निभाई जा रही है।

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1-छुअन

कमला निखुर्पा

अतृप्त आकुल चिर तृषित मानव !

छूने को व्याकुल क्यों नश्वर तन ?

स्पर्श सुख विह्वल हे मानव !

अनजान रही क्यों मन की तड़पन ?

क्षणभंगुर तन का स्पर्श क्यों बारम्बार

छूकर देखो रे मन को इक बार।

झंकृत होंगे मन- वीणा के तार

गुंजित सप्त सुरों की झनकार।

मन-कमल की बंद पंखुडि़याँ

शनै: शनै: खुल जाएँगी

जाने अनजाने कहे अनकहे

सभी राज खुल जाएँगे।

तन का मिलन बस पार्थिव मिलन

मिटेगी न कभी मन की उलझन

मन -मिलन में हम तुम हर क्षण

मिलते ही जाएँगे।

राहों में नित नवीन प्रसून

खिलते महकते जाएँगे।

अपलक नयनों से होगा जब

अगणित पावन मूक संभाषण

मौन दृष्टि करेगी हर क्षण

युगों युगों तक प्रणय- निवेदन।

अस्थि चर्ममय नश्वर तन जब

जलकर नष्ट हो जाएगा।

प्रेमरस परिपूरित मन तब भी

निज परिमल बिखराएगा।

वीरान मंदिर, सुनसान मरुस्थल

फिर मधुवन बन जाएगा

गुंजित मुखरित हो जाएगा।

कहीं कोई रांझा कहीं कोई ढोला

फिर गीत प्रेम के गाएगा।