कमला निखुर्पा
चाहती हूँ मैं
रख दूँ अरमानों की पोटली को, दूर किसी कोने में
झटक दूँ सारी पीड़ाएँ,
सारी चिंताएँ
खो जाऊँ, कहीं गुम हो जाऊँ दुनिया की भीड़ में
पर नहीं हो पाता ये
बार–बार खोलती हूं अरमानों की पोटली को
सहेजती हूँ बिखराव को
रोकती हूँ भटकाव को
पर क्या करूँ, उन रंगबिरंगे ख्वाबों का ?
जो बार बार सपनों में आकर
जगा देते हैं मुझे
क्या करूँ उन आहों का?
जो मन की घाटियों में गूँजकर
रुला देते हैं मुझे
नहीं रोक पाती मैं बिखराव को
नहीं रोक पाती मैं भटकाव को
बार बार सहेजती हूँ अरमानों की गठरी को
गाँठ संयम की लगाकर
धर देती हूँ दूर किसी कोने में
पर अचानक झाँकने लगता है गठरी से
ख्वाब का इक रंगीन टुकड़ा
अपने अस्तित्व का पल पल कराता है एहसास
बुलाता मुझे वो बार बार अपने पास
नहीं रोक पाती मैं खुद को
फिर खुल जाती है गाँठ संयम की
फिर बिखर जाती है पोटली अरमानों की
बजने लगती है घंटियाँ
कहीं दूर मन के मंदिर में
बहने लगती है पुरवाई
कोरे कागज के खेतों में
चल पड़ती है कलम मेरी
इक अनजाने सफर में
जगने लगते हैं अरमान
फिर जिंदगी में......