Sunday, August 22, 2010
कुछ कहना चाहूँगी मै
कुछ कहना चाहूँगी मै
गुन्जनरत भंवरों से
बौराई मंजरियों से
महकती कलियों से
बिखर जाए मधु पराग कण
विस्तृत धरा में
नील अंबर में
सतरंगी इन्द्रधनुषी आभा में
खिल उठे हर चेहरा हर दृष्टि
मधुमय हो जाए यह सृष्टि
पुष्पित अरविन्द की तरह ........
कुछ कहना चाहूंगी मैं
घिरती घटाओं से
सावन की फुहारों से
गूँज उठे स्वर लहरी मेरी
व्याकुल पपीहे की तरह
बरसे रसधार प्रेम फुहार
चहुँ दिशि चहुँ ओर
बारिश की तरह .....
धरती की पुकार :
Friday, August 20, 2010
सुख-दुख
सुख तो सौरभ है दो दिन का ,
दुख दो पल की धूल है ।
इनको अपनी नियति समझना
ही जीवन की भूल है ।
-रामेश्वर काम्बोज ‘हिमांशु’
Saturday, October 24, 2009
अरमानों की पोटली
कमला निखुर्पा
चाहती हूँ मैं
रख दूँ अरमानों की पोटली को, दूर किसी कोने में
झटक दूँ सारी पीड़ाएँ,
सारी चिंताएँ
खो जाऊँ, कहीं गुम हो जाऊँ दुनिया की भीड़ में
पर नहीं हो पाता ये
बार–बार खोलती हूं अरमानों की पोटली को
सहेजती हूँ बिखराव को
रोकती हूँ भटकाव को
पर क्या करूँ, उन रंगबिरंगे ख्वाबों का ?
जो बार बार सपनों में आकर
जगा देते हैं मुझे
क्या करूँ उन आहों का?
जो मन की घाटियों में गूँजकर
रुला देते हैं मुझे
नहीं रोक पाती मैं बिखराव को
नहीं रोक पाती मैं भटकाव को
बार बार सहेजती हूँ अरमानों की गठरी को
गाँठ संयम की लगाकर
धर देती हूँ दूर किसी कोने में
पर अचानक झाँकने लगता है गठरी से
ख्वाब का इक रंगीन टुकड़ा
अपने अस्तित्व का पल पल कराता है एहसास
बुलाता मुझे वो बार बार अपने पास
नहीं रोक पाती मैं खुद को
फिर खुल जाती है गाँठ संयम की
फिर बिखर जाती है पोटली अरमानों की
बजने लगती है घंटियाँ
कहीं दूर मन के मंदिर में
बहने लगती है पुरवाई
कोरे कागज के खेतों में
चल पड़ती है कलम मेरी
इक अनजाने सफर में
जगने लगते हैं अरमान
फिर जिंदगी में......