Tuesday, February 25, 2014

दरकते खेत पहाड़ों के





ये खेतों की सीढियां गवाह हैं ...

एक ही सांस में, जाने किस आश में.... 

पूरा पहाड़ चढ़ जाती पहाड़न के पैरों की बिवाई को ...

रोज छूती हैं ये सीढियाँ खेतों की ...

ये गवाह है पैरों में चुभते काँटों की ....

माथे से छलकती बूंदों की ...

जिसमें कभी आँखों का नमकीन पानी भी मिल जाता है ....


ढलती सांझ के सूरज की तरह... 

किसी के आने की आश की रोशनी भी ....

पहाड़ के उस पार जाकर ढल जाती है... 

रोज की तरह ... 

धूप भी आती है तो मेहमान की तरह

कुछ घड़ी के लिए ..

पर तुम नहीं आते ...


जिसकी राह ताकती हैं रोज ये सीढियां खेतों की ... 

 जिसकी मेढ़ पे किसी के पैर का एक बिछुवा गिरा है ... 

किसी के काँटों बिंधे क़दमों से एक सुर्ख कतरा गिरा है ...

कितनी बार दरकी है... टूटी है.. ये सीढियां खेतों की ... 

ये पीढियां शहरों की ....कब जानेंगी ?

                                                                  कमला 31-01-2014

                                                                         


कुर्सी और कविता



कुर्सी जीने नहीं देती
कविता मरने नहीं देती 

चारों पायों ने  मिलकर जकड़ रखा है 

उड़ने को बेताब कदमों को 


हाथों में थमी कलम 

दौड़ने को बिकल 

कल्पना की घाटी में 

जहां फूलों की महक में कोई सन्देश छुपा है 

जहां पंछियों के कलरव में मधुर संगीत गूंजा है 

अभी-अभी जहां बादलों ने सूरज से आंखमिचौली खेली है 


वो प्यारी सी रंगीन डायरी 

जाने कब से उपेक्षित है
धूल से सनी कोने पे पड़ी

हर रोज नजर आती है 

और मैं नजरें चुरा लेती हूँ 


फाइलों के ढेर में दबी जा रही कविता

टूटती साँसों के बीच अचानक 

कहीं दूर से इक हवा का झोंका 

डाकिया बन कानों में कुछ कह जाता है 


बंद लिफ़ाफ़े  की खिड़की से झांक

खिलखिला उठती है किताबें

किताबों में पाकर अपनी खोई सहेलियों को 

फिर से जी उठती है कविता 


सारे बंधनों  के बीच भी  

आजादी के कुछ पल पा लेती है कविता

कितना ही बाँधे कुर्सी 

उड़ान भर लेती  है कविता |


कमला निखुर्पा २३.०२.२०१४





Sunday, October 13, 2013

युग-चेतना: ‘ई’ जन्मदिन (E-Birthday)

युग-चेतना: ‘ई’ जन्मदिन (E-Birthday)rdkamboj@gmail.com

‘ई’ जन्मदिन (E-Birthday)

‘ई’ जन्मदिन (E-Birthday)
              दिल की गहराइयों से सभी मित्रों और प्यारे विद्यार्थियों का धन्यवाद जिन्होंने सैकड़ों सन्देश भेजकर ( माफी चाहती हूँ कि आप लोग वाल पर नहीं लिख पा रहे हैं ) मुझे याद दिलाया कि मेरा जन्मदिन है ..सच रोजमर्रा  की भाग दौड़ में, कब जिंदगी चुपके से निकल जाती है पता ही नहीं चलता ...कल का पूरा दिन यानि मेरा जन्मदिन ३० पृष्ठों का रिपोर्ट बनाने में गुजर गया |
                         मुझे बहुत याद आ रही है मेरी दादी की जो मेरे जन्मदिन पर सुबह - सुबह मुझे मंदिर ले जाती थी .. नहाधोकर वो नई फ्राक पहनना ...वो पूजा की थाल सजाना ... बगीचे में घूम-घूमकर सबसे सुन्दर  खिले हुए फूल चुनना ..दौड़ते हुए दो किलोमीटर पैदल चढ़ाई चढ़ माता नंदादेवी के मंदिर जाना ... .पहाड़ी के ऊपर चीड के पेड़ों के बीच बना छोटा सा मंदिर .. मंदिर के चारों ओर  लटकती ढेर सारी घंटियाँ, भक्तों की  मनोकामना पूरी होने का प्रतीक थी| मंदिर परिसर की साफसफाई कर हम दोनों धूप दीपक जलाते थे| उस वीराने में जंगल के बीच बने मंदिर में दिप दिपकर जलता दीपक और धूप का धुंआ मंदिर को और रहस्यमय बना देता था| मैं दादी के पीछे खडी-खडी सोचती थी क्या इस पत्थर के अन्दर भगवान् होंगे ? क्या वो मुझे देख रहे होंगे ?  मेरी दादी,  देवी  की मूरत के सामने आंखे बंदकर मन ही मन जाने क्या-क्या बोलती रहती थी ... मैं चुपके से उनके मुंह के पास अपने कान लगा सुनने की कोशिश करती पर कुछ समझ में नहीं आता था| हारकर मैं मंदिर की परिक्रमा करते हुए सारी घंटियाँ बजा-बजा कर सुनती  थी ... ये छोटी वाली घंटी इसकी कितनी प्यारी आवाज ...टिनटिन और ये बड़ा सा घंटा कितना ऊपर लटका है  ... उछल उछलकर जोर  लगाकर उसे बजाकर ही दम लेती .. उफ़ कितना घमंडी है ये घंटा |
       तभी पीले पंखों वाली तितली मेरे आगे-पीछे उड़ने लगती है  .. बस फिर क्या था तितली आगे-आगे और मैं पीछे-पीछे ... जैसे ही पकड़ने की कोशिश करती वो फुर्र से उड़ जाती कभी झाड़ी में ... कभी चट्टान  के ऊपर .. तभी दादी की पुकार सुनकर आसपास देखा तो पता चला कि तितली के साथ मैं मंदिर से बहुत दूर आ गयी हूँ |
मंदिर से वापस जाते हुए मैं दादी से बार बार पूछती हूँ .. अम्मा, आज तू मेरे लिए क्या बनाएगी ?
दादी हंसकर कहती – हलवा पूरी और आलू के गुटके |
मैं आज पूरा दिन खेलूंगी , मेरी गुडिया का डब्बा मुझे दे देना ..|
हाँ हाँ दे दूंगी, पहले घर चलकर मेरी मदद तो कर|
अम्मा, तुम मेरी गुडिया को मत छुपाया करो और हाँ मेरी गुडिया को भी नये कपड़े चाहिए , दोगी ना ??
    मेरी अम्मा ...(लोग कहते थे कि वो सौतेली है उसकी अपनी कोई संतान नहीं) पर मेरे लिए वो सबसे प्यारी , दुनिया से निराली .. उसकी आँखों में ममता का समन्दर लहराता था ..उसकी गोद में  बादलों की कोमलता थी  ..उसकी बातों में परियों की कहानियाँ थी .. जिसका प्यार भरा स्पर्श मैं आज भी महसूस करती हूँ  और पार आकर जाती हूँ हर बाधा को |
    घर के कोने वाले कमरे में एक छोटा सा मंदिर .. जिसमें ढेर सारे देवी देवताओं की तस्वीरें हैं . बहुत सुन्दर सजाया गया है . सबसे पहले हलवा पूरी भगवानजी के सामने  चढ़ाया गया .. मुझे भी चौकी में बिठाकर अक्षत रोली-टीका लगाकर अम्मा ने मुझे फूलों की माला पहना दी .. वहां उपस्थित सभी लोग हंसने लगे .. मैंने सबके पैर छुए और आशीर्वाद लिया |
खाना खाते-खाते मैंने देखा कि चाचाजी मेरा बस्ता निकाल रहे हैं ...
नहीं ....आज मैं नहीं पढूंगी ..
बस गणित के चार सवाल कर ले बेटा ,, फिर छुट्टी ..
खाना आधा छोड़कर मैं भाग गयी बगीचे में .. जहाँ आम ..अमरूद, केला, लीची के पेड़ अपनी डाले फैलाए मेरी राह  देख रहे थे .. जहाँ नर्म घास पर खिले जंगली फूल मुझे बुला रहे थे .. जहाँ रंग बिरंगी चिड़िया कब से चहचहाकर मुझे पुकार रही थी |
काश जिन्दगी में भी Crtl + Z का विकल्प होता तो कितना अच्छा होता.....


कमला निखुर्पा

गुजरात