Wednesday, March 9, 2016

पहाड़ों की बेटी
वो बेटी पहाड़ों की
धौली रूपसी हिमगंगा सी
हाथ में ले हंसिया
बांध कमर में रस्सी,
निकल पड़ी है  
बियाबान जंगलों की ओर ।

टेड़ी मेडी सर्पीली पगडंडियाँ
रोज बनाती मिटाती रहती
उसके फटी बिवाईयों वाले
पैरों की निशानियाँ |
इससे पहले कि हो जाए भोर
निकल पड़ी वो जंगलों की ओर

चिड़ियों की चहचहाहट के संग
लो खनक उठी है
उसके हाथों  की  हरी-भरी चूड़ियाँ
घुंघरू बँधे दराती के साथ ।


काटते-काटते घास
बांज बुरांश के जंगलों में
जब रुक जाते उसके हाथ
घाटियों में गूंज उठती
दूर  तलक
उसके  लोकगीतों के  स्वर  

न्योली, झुमेली, चाचरी की धुन सुन
घुराने लगती है  घुघूती 
कल-कल करता
बहता झरना भी
थम  जाता है पल भर को ।
ठिठक जाता है
कुलांचे भरता मृगछौना  भी।

गीतों की स्वर लहरियों संग
जाने क्यों उमड़ आए हैं
दर्द के सैलाब
क्यों भीगने लगा है
जंगल का पत्ता-पत्ता
सुनकर करुण पुकार |
काँपने लगा  है क्यों
वो ऊँचा पहाड़ |

घसियारन के गीतों के संग संग
गूंज रही घाटियां
ओ सुआ परदेशी.......
कब घर आओगे ...?
बीते बरस
बीत न जाए उमर।
अब तो ले ले मेरी खबर ।

बहने लगी है 

दर्द भरी बयार ।
बियाबान जंगलों में
फिर से एक बार ।
दरकने लगा है
पहाड़ का हिया भी
सुनकर बिटिया की करुण पुकार|
08 मार्च 2016
 05.15 PM
कमला निखरूपा
सूरत




Wednesday, August 12, 2015

बाल कविता 


बोल रे बादल, बादल  बोल।
तुम गरजो तो नाचे मोर 
हम गरजें तो मचता शोर
टीचरजी हम पर गुर्राती 
जाने क्यों वो समझ ना पाती।
खुल जाती हम सबकी पोल ।
बोल रे  बादल, बादल बोल।

करें  गुदगुदी नटखट बूंदें
छप छपा छप कूदा-फांदी 
धप से फिसला मोटू हाथी  
बड़े मजे का है ये खेल 
क्यों खिड़की से झांके चुन्नू ?
बाहर आ  दरवाजा खोल।
बोल रे बादल बादल बोल।

ये तेरी नाव वो मेरी नाव
बिन माँझी पतवार के भी
बढ़ चली रे अपनी नाव 
कागज की नैया मुन्नू खिवैया 
सब चिल्लाएं हैय्या हो हैय्या 
है इन खुशियों का है कोई मोल ?
बोल रे बादल बादल बोल।



                    कमला निखुर्पा 



Thursday, July 16, 2015

            मुझे यात्राएं बहुत पसंद है smile emoticon मेरा बस चले तो धरती और आसमान का हर कोना घूम लूँ .. प्रकृति के हर उपादान को जी भर निहारूं .. चलती रहूँ चलती रहूँ .. सफ़र कभी खत्म न हो ..ऐसे ही एक यात्रा के दौरान मैं  शायद २००८ में ...कोटा से भीलवाडा जा रही थी | भीडभाड .. यात्रियों से खचाखच भरी बस में चढ़ी ...कहीं तिल रखने की जगह नहीं थी | सीट की तलाश में आँखे इधर-उधर कुछ ढूँढ़ रही थी | हर सीट पे यात्री विराजमान थे .. कोई बड़ी बड़ी पगड़ी वाले .. कोई रंग बिरंगी गोटे किनारे वाली चूनर ओढ़े ... कोई घूँघट में छिपी थी तो कोई माथे का बड़ा सा बोरला (मांग टीका ) चमकाते हुए बतियाने में मस्त... ब्रेक लगते तो धक्का भी लगता .. गिरने ही वाली थी कि बड़ी-बड़ी मूंछों वाले एक रंगीन पगडीधारी बुजुर्ग किसान ने मुझे संभाल लिया | अपनी सीट से उठकर बोला "आ बेटी तू ऐठे बैठ जा " | आँखों से ही उसे धन्यवाद देकर मैं बस की खिडकी से बाहर का दृश्य देखने लगी | तेजी से भागते पेड़ , हरे भरे लहलहाते खेत खलिहान , मैदान में चरते ढोर डंगर... बस में बैठे-बैठे बदलते नजारों के बीच में मैं खो सी गई .. और अपनी मन की डायरी पे कुछ लिखने लगी ...कुछ कच्ची सी अनगढ़ रचना जिसे आदरणीय काम्बोज भैया और रचनाकार ई पत्रिका ने प्रकाशित किया था |आज अचानक नेट सर्फ़ करते हुए दिख गई ..


डोकरा जी को सलाम

-कमला निखुर्पा

रंग- रंगीली पगड़ी सिर पे
आँखों में लरजता प्यार है।

झुर्रियों से भरा चेहरा तेरा
कहता अनुभव अपार है।

तेरे उन्मुक्त हँसी के ठहाके
हर आँगन की शान है।

ये वृद्ध-बुजुर्ग नमन तुम्हें
तू भारत की शान है।

बडी–बडी नुकीली मूँछों में
छुपी मीठी मुसकान है।

बटुआ तेरा खाली–खाली सा
पर मन सोने की खान है।

ये वृद्ध बुजुर्ग नमन तुम्हें
तू भारत की शान है।

अनजाना है गाँव तेरा
लगता है मुझको अपना- सा।

ये लहराते हरे खेत
लगता है ये इक सपना –सा ।

मरुभूमि सिंचित तेरे पसीने से
तुझको मेरा प्रणाम है।

ये वृद्ध बुजुर्ग नमन तुम्हें
तू भारत की शान है।

शायद तुझमें ही छुपा हुआ
मेरा प्यारा हिन्दुस्तान है।

तेरे गाँव की मिट्टी से ही
मेरा भारत महान है।

--------.
डोकरा= बूढ़ा
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Wednesday, December 31, 2014

मनाऊँ मैं कैसे नया साल




मनाऊँ मैं कैसे नया साल

फिर आया ३१ दिसंबर , मनाऊँ मैं कैसे नया साल ?
वो बिखरे-बिखरे बालों वाली,
चिथड़ा ओढ़े काँप रही |
नन्ही सी हथेली फैलाकर,
वो जाने क्या कुछ माँग रही |
भूखी प्यासी और वीरान, आँखों में उसके कई सवाल |
मनाऊँ मैं कैसे नया साल?





  वो सुबह-सवेरे घर से निकला है,
  झुण्ड में चल रहा पर अकेला है|
  पढ़ने-लिखने की उम्र में,
  हाथों में लिए एक तसला है |
स्कूली बच्चों की किलकारी सुन, क्यों धीमी पड़ गई उसकी चाल?
मनाऊँ मैं कैसे नया साल?









  वो पगला सड़क पर डोल रहा,
  कितना कुछ खुद से बोल रहा |
  झिड़कियां सुन, पत्थर खाकर भी,
  फिर-फिर करता किल्लोल रहा|
क्यों लहूलुहान हुई संवेदना, क्यों मानवता घायल बेहाल ?
मनाऊँ मैं कैसे नया साल?






  कहीं बम के धमाके गूंज रहे ,
  कहीं अस्मत हो रही तार-तार|
  कहीं कोखें सूनी हुई माँओं की ,
  कहीं सजा भ्रष्टों का बाज़ार|
सबकुछ भुला कैसे नाचूँ गाऊं, कैसे मिटे मन का मलाल |
मनाऊँ मैं कैसे नया साल?





  आओ लगाएँ घावों पे मरहम
  आँसू पोछें मुस्कान खिलाएँ |
  सर्द हो रहे रिश्तों को आँच दें,
  अपनेपन का अलाव जलाएँ |
मिलजुलकर हमतुम संग चलें तो, होगा भावी साल खुशहाल |
तब हंस गाकर खुशियाँ बांटकर, फिर-फिर मनाएँ नया साल |

कमला निखुर्पा