Sunday, April 17, 2016

कविता 'वो पेड़ '

मेरे घर की बालकनी से  जिसे मैं अक्सर निहारा करती हूँ
जिसे देखकर मैं सुकून पाती  हूँ
प्रकृति  की अनुपम भेंट है वो
जी हाँ बस एक पेड़ है वो
धूप  को सहता, बारिश में भीगता
अनगिन  पंछियों का बसेरा,
फूलों से लदा एक पेड़ है जो मेरे दिल के बेहद करीब है .....





वो पेड़
                    कमला निखुर्पा

सड़क किनारे सुन्दर सघन वो पेड़
रंगीं चंदोवे सा तना हरियाला वो पेड़|

पहन फूलों का कुरता, बाहें फैलाए,
पवन झकोरे संग,  झूम पंखुडियां बिखराए,
धानी हरी कोंपलें मर्मर के गीत गाएं,
लू के थपेड़ों को चिड़ाता  है वो पेड़ |
अलमस्त योगी सा, नजर आता है वो पेड़|

ऊंची डालियों में, सारसों की  बैठक जमी है
छुप के बैठी पत्तों में, काली कोयल चकोरी है
कलरव को सुनसुन, हर्षाए  है वो पेड़ |
मौनी बाबा बन मगन, झूमे है वो पेड़ |

चली आई तितलियां, मानो नन्हीं श्वेत परियां
फूलों के संग-संग मनाए रंगरलियाँ
नचा पूँछ झबरीली,  कूद पड़ी  गिलहरी
इस डाल  कभी उस डाली, पगली सी मतवाली
नाजुक परों की छुवन, सिंहर उठा है वो पेड़ |
बिखरे फूल जमीं पे बुने, सुन्दर कालीन वो पेड़ |

डाली डाली पे बसा, तिनकों का बसेरा
अनगढ़ टहनियों पे, सुघड़ नीड प्यारा
काले कौए की नियत खोटी, जाने क्यों ना पेड़ ?
नन्हीं चिरैया चीखी तब स्तब्ध हुआ वो पेड़ |

ऊंची फुनगी पे बैठ इतराई, नन्हीं फुलसुँघनी
बगुलों की टोली आई, भागी फुलसुँघनी
नटखट अठखेलियाँ, खिलाए है वो पेड़ |
अनगिन सहेलियां, मिलाए है वो पेड़ |

कितनी उड़ानों को, समेटे है वो पेड़
कितनी थकानों को, मिटाए है वो पेड़
पेड़ अकेला, अनगिन परिवार
हर शाख ने बाँधे हैं बंदनवार
कंकरीटी फ़्लैट से, झाँके दो आँखें
सूने कमरों में, ढूँढती खोई पांखें
शाख से टूटी वो कैसे मिलाए पेड़
घिर आई बदली जार-जार रोए है वो पेड़ |

17 April 2016 








Wednesday, March 9, 2016

पहाड़ों की बेटी
वो बेटी पहाड़ों की
धौली रूपसी हिमगंगा सी
हाथ में ले हंसिया
बांध कमर में रस्सी,
निकल पड़ी है  
बियाबान जंगलों की ओर ।

टेड़ी मेडी सर्पीली पगडंडियाँ
रोज बनाती मिटाती रहती
उसके फटी बिवाईयों वाले
पैरों की निशानियाँ |
इससे पहले कि हो जाए भोर
निकल पड़ी वो जंगलों की ओर

चिड़ियों की चहचहाहट के संग
लो खनक उठी है
उसके हाथों  की  हरी-भरी चूड़ियाँ
घुंघरू बँधे दराती के साथ ।


काटते-काटते घास
बांज बुरांश के जंगलों में
जब रुक जाते उसके हाथ
घाटियों में गूंज उठती
दूर  तलक
उसके  लोकगीतों के  स्वर  

न्योली, झुमेली, चाचरी की धुन सुन
घुराने लगती है  घुघूती 
कल-कल करता
बहता झरना भी
थम  जाता है पल भर को ।
ठिठक जाता है
कुलांचे भरता मृगछौना  भी।

गीतों की स्वर लहरियों संग
जाने क्यों उमड़ आए हैं
दर्द के सैलाब
क्यों भीगने लगा है
जंगल का पत्ता-पत्ता
सुनकर करुण पुकार |
काँपने लगा  है क्यों
वो ऊँचा पहाड़ |

घसियारन के गीतों के संग संग
गूंज रही घाटियां
ओ सुआ परदेशी.......
कब घर आओगे ...?
बीते बरस
बीत न जाए उमर।
अब तो ले ले मेरी खबर ।

बहने लगी है 

दर्द भरी बयार ।
बियाबान जंगलों में
फिर से एक बार ।
दरकने लगा है
पहाड़ का हिया भी
सुनकर बिटिया की करुण पुकार|
08 मार्च 2016
 05.15 PM
कमला निखरूपा
सूरत




Wednesday, August 12, 2015

बाल कविता 


बोल रे बादल, बादल  बोल।
तुम गरजो तो नाचे मोर 
हम गरजें तो मचता शोर
टीचरजी हम पर गुर्राती 
जाने क्यों वो समझ ना पाती।
खुल जाती हम सबकी पोल ।
बोल रे  बादल, बादल बोल।

करें  गुदगुदी नटखट बूंदें
छप छपा छप कूदा-फांदी 
धप से फिसला मोटू हाथी  
बड़े मजे का है ये खेल 
क्यों खिड़की से झांके चुन्नू ?
बाहर आ  दरवाजा खोल।
बोल रे बादल बादल बोल।

ये तेरी नाव वो मेरी नाव
बिन माँझी पतवार के भी
बढ़ चली रे अपनी नाव 
कागज की नैया मुन्नू खिवैया 
सब चिल्लाएं हैय्या हो हैय्या 
है इन खुशियों का है कोई मोल ?
बोल रे बादल बादल बोल।



                    कमला निखुर्पा 



Thursday, July 16, 2015

            मुझे यात्राएं बहुत पसंद है smile emoticon मेरा बस चले तो धरती और आसमान का हर कोना घूम लूँ .. प्रकृति के हर उपादान को जी भर निहारूं .. चलती रहूँ चलती रहूँ .. सफ़र कभी खत्म न हो ..ऐसे ही एक यात्रा के दौरान मैं  शायद २००८ में ...कोटा से भीलवाडा जा रही थी | भीडभाड .. यात्रियों से खचाखच भरी बस में चढ़ी ...कहीं तिल रखने की जगह नहीं थी | सीट की तलाश में आँखे इधर-उधर कुछ ढूँढ़ रही थी | हर सीट पे यात्री विराजमान थे .. कोई बड़ी बड़ी पगड़ी वाले .. कोई रंग बिरंगी गोटे किनारे वाली चूनर ओढ़े ... कोई घूँघट में छिपी थी तो कोई माथे का बड़ा सा बोरला (मांग टीका ) चमकाते हुए बतियाने में मस्त... ब्रेक लगते तो धक्का भी लगता .. गिरने ही वाली थी कि बड़ी-बड़ी मूंछों वाले एक रंगीन पगडीधारी बुजुर्ग किसान ने मुझे संभाल लिया | अपनी सीट से उठकर बोला "आ बेटी तू ऐठे बैठ जा " | आँखों से ही उसे धन्यवाद देकर मैं बस की खिडकी से बाहर का दृश्य देखने लगी | तेजी से भागते पेड़ , हरे भरे लहलहाते खेत खलिहान , मैदान में चरते ढोर डंगर... बस में बैठे-बैठे बदलते नजारों के बीच में मैं खो सी गई .. और अपनी मन की डायरी पे कुछ लिखने लगी ...कुछ कच्ची सी अनगढ़ रचना जिसे आदरणीय काम्बोज भैया और रचनाकार ई पत्रिका ने प्रकाशित किया था |आज अचानक नेट सर्फ़ करते हुए दिख गई ..


डोकरा जी को सलाम

-कमला निखुर्पा

रंग- रंगीली पगड़ी सिर पे
आँखों में लरजता प्यार है।

झुर्रियों से भरा चेहरा तेरा
कहता अनुभव अपार है।

तेरे उन्मुक्त हँसी के ठहाके
हर आँगन की शान है।

ये वृद्ध-बुजुर्ग नमन तुम्हें
तू भारत की शान है।

बडी–बडी नुकीली मूँछों में
छुपी मीठी मुसकान है।

बटुआ तेरा खाली–खाली सा
पर मन सोने की खान है।

ये वृद्ध बुजुर्ग नमन तुम्हें
तू भारत की शान है।

अनजाना है गाँव तेरा
लगता है मुझको अपना- सा।

ये लहराते हरे खेत
लगता है ये इक सपना –सा ।

मरुभूमि सिंचित तेरे पसीने से
तुझको मेरा प्रणाम है।

ये वृद्ध बुजुर्ग नमन तुम्हें
तू भारत की शान है।

शायद तुझमें ही छुपा हुआ
मेरा प्यारा हिन्दुस्तान है।

तेरे गाँव की मिट्टी से ही
मेरा भारत महान है।

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डोकरा= बूढ़ा
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