सुख तो सौरभ है दो दिन का ,
दुख दो पल की धूल है ।
इनको अपनी नियति समझना
ही जीवन की भूल है ।
-रामेश्वर काम्बोज ‘हिमांशु’
सुख तो सौरभ है दो दिन का ,
दुख दो पल की धूल है ।
इनको अपनी नियति समझना
ही जीवन की भूल है ।
-रामेश्वर काम्बोज ‘हिमांशु’
रख दूँ अरमानों की पोटली को, दूर किसी कोने में
झटक दूँ सारी पीड़ाएँ,
सारी चिंताएँ
खो जाऊँ, कहीं गुम हो जाऊँ दुनिया की भीड़ में
पर नहीं हो पाता ये
बार–बार खोलती हूं अरमानों की पोटली को
सहेजती हूँ बिखराव को
रोकती हूँ भटकाव को
पर क्या करूँ, उन रंगबिरंगे ख्वाबों का ?
जो बार बार सपनों में आकर
जगा देते हैं मुझे
क्या करूँ उन आहों का?
जो मन की घाटियों में गूँजकर
रुला देते हैं मुझे
नहीं रोक पाती मैं बिखराव को
नहीं रोक पाती मैं भटकाव को
बार बार सहेजती हूँ अरमानों की गठरी को
गाँठ संयम की लगाकर
धर देती हूँ दूर किसी कोने में
पर अचानक झाँकने लगता है गठरी से
ख्वाब का इक रंगीन टुकड़ा
अपने अस्तित्व का पल पल कराता है एहसास
बुलाता मुझे वो बार बार अपने पास
नहीं रोक पाती मैं खुद को
फिर खुल जाती है गाँठ संयम की
फिर बिखर जाती है पोटली अरमानों की
बजने लगती है घंटियाँ
कहीं दूर मन के मंदिर में
बहने लगती है पुरवाई
कोरे कागज के खेतों में
चल पड़ती है कलम मेरी
इक अनजाने सफर में
जगने लगते हैं अरमान
फिर जिंदगी में......
क्यों दी तुमने अग्नि परीक्षा?
कि युगों बाद आज भी
यही परंपरा निभाई जा रही,
पहले चिता को सजाकर सीता
सती बनाई जाती रही,
और अब
दहेज के लिए रोज
कई सीताएँ जलाई जा रहीं।
मिथिला की राजकुमारी तुम!
क्यों सहे तुमने कष्ट वनवास के
क्यों वर्षों तक वन में
नंगे पांव कांटों पर चलती रही तुम?
कि हर युग में हर कदम पर
नारी को काँटों का उपहार ही मिला।
अपने घर पर रहकर भी
उसने केवल वनवास ही जिया।
तुम्हें नहीं मालूम?
बदल चुकी है अब –
देह की परिभाशा
घुट-घुटकर घर में रोती हैं
आज अनुसूया, अहिल्या
सभ्यता के रुपहले पर्दे पर
नग्न नृत्य करतीं हैं
शूर्पनखा और ताड़का।
क्यों दी तुमने अग्नि परीक्षा?
कि वासना के विमान पर सवार होकर
दसों दिशाओं से दशानन
अट्टहास कर रहा है।
हर घर में सीता के लिए
अविश्वास, असुरक्षा का अग्निकुंड सजा रहा है।
जने थे तुमने वीर पुत्र,
वीर प्रसू थी तुम
फिर भी नहीं रोक पाए वे
धरती के गर्भ में समाती
अपनी जननी को
तभी तो आज भी
यही परंपरा निभाई जा रही है।
नन्हीं अजन्मी सीताएँ,
माँ की कोख से छीनकर
धरती के गर्भ में दफनाई जा रहीं हैं।
युगों युगों से क्यों यही
परंपरा निभाई जा रही है।
कमला निखुर्पा
छूने को व्याकुल क्यों नश्वर तन ?
स्पर्श सुख विह्वल हे मानव !
अनजान रही क्यों मन की तड़पन ?
क्षणभंगुर तन का स्पर्श क्यों बारम्बार
छूकर देखो रे मन को इक बार।
झंकृत होंगे मन- वीणा के तार
गुंजित सप्त सुरों की झनकार।
मन-कमल की बंद पंखुडि़याँ
शनै: शनै: खुल जाएँगी
जाने अनजाने कहे अनकहे
सभी राज खुल जाएँगे।
तन का मिलन बस पार्थिव मिलन
मिटेगी न कभी मन की उलझन
मन -मिलन में हम तुम हर क्षण
मिलते ही जाएँगे।
राहों में नित नवीन प्रसून
खिलते महकते जाएँगे।
अपलक नयनों से होगा जब
अगणित पावन मूक संभाषण
मौन दृष्टि करेगी हर क्षण
युगों युगों तक प्रणय- निवेदन।
अस्थि चर्ममय नश्वर तन जब
जलकर नष्ट हो जाएगा।
प्रेमरस परिपूरित मन तब भी
निज परिमल बिखराएगा।
वीरान मंदिर, सुनसान मरुस्थल
फिर मधुवन बन जाएगा
गुंजित मुखरित हो जाएगा।
कहीं कोई रांझा कहीं कोई ढोला
फिर गीत प्रेम के गाएगा।
कमला निखुर्पा
भूल सभी को हम तुम साथी
दूर प्रकृति में खो जाएँ
विराट सृष्टि के हो जाएँ।
मंद -मंद बह रहा अनिल हो
झरने का मृदु कलकल रव हो
हिमशिखरों में सूरज चमके
प्रतिबिम्बित नीलाभ झील में
रेगबिरंगी मधुमय छवि हो
भौरों के गुन -गुन गुंजन को
स्वर अपना हम देकर गाएँ
भूल सभी को हम तुम साथी
दूर प्रकृति में खो जाएँ
बैठे हों सागर के तीरे
लहरों को गिनते रह जाएँ
रवि की आभा देखें एकटक
और सपनों में खो जाएँ
जब सूरज ढल जाए साथी
पंछी गीत मिलन के गाएँ
अंबर में चंदा मुस्काए
पपीहा करुण पुकार लगाए।
सर्पीली पगडंडी पर हम
थामे एक दूजे का हाथ।
निकल पड़ें नीरव रजनी में
कभी न छूटे अपना साथ।
चलते- चलते हम-तुम दोनों
दूर सितारों तक हो आएँ।
काश कभी वो दिन भी आए
भूल सभी को हम तुम साथी
दूर प्रकृति में खो जाएँ
विराट सृष्टि के हो जाएँ।
कमला निखुर्पा
चल पड़ी मैं हिमशिखरों की ओर
जन्मभूमि वह मेरी प्यारी
कर्मभूमि वह मेरी न्यारी
मातृमिलन को उत्कंठित, पहुँची मैं हिमशिखरों की ओर............................
प्रातकाल की स्वर्णिम बेला में
पल–पल रंग बदले हिमालय
कभी दुग्ध धवल, कभी सोने-सा
स्वर्णिम छटा दिखाए हिमालय
कितना स्वप्निल, कितना रमणीक,
इसका न कहीं ओर–छोर
खो गई रे मैं तो निहार के, इन उज्ज्वल हिमशिखरों की ओर..............................
ओस कणों की माला पहने
सद्यस्नाता हरी चूनर ओढ़े
कोहरे के घूँघट को सरका
माथे रवि- बिंदिया को चमका
प्रकृति यहाँ बनती चितचोर
रम गया रे मन मेरा फिर से, निर्मल गिरिशिखरों की ओर......................................
जाने–पहचाने हैं पथ और पंथी
आन मिले सब साथी–संगी
कितने प्यारे चेहरे गोरे गोल–मटोल
कितनी प्यारी बातें सुन मैं हुई विभोर
देख यहाँ की अनुपम आभा
नयन मेरे बन गए चकोर
काश! कभी ना जाऊँ मैं इन शीतल हिमशिखरों को छोड़
हर बार जनम लूँ इसी धरा पर, प्रभु से प्रार्थना है कर जोड़.....................................