आरोह -अवरोह और यति-गति का काव्य-वाचन में बहुत महत्त्व है । यदि भावानुकूल वाचन होगा तो अर्थ सहज रूप से अभिव्यक्त हो जाएगा । हरिवंशराय बच्चन की कविता 'बुद्ध और नाचघर' इसका महत्त्वपूर्ण उदाहरण है ।
-कमला निखुर्पा http://wwwsamvedan.blogspot.com/2011/10/budh-aur-naach-ghar.htmlWednesday, October 12, 2011
Saturday, October 1, 2011
अलविदा कैसे कहूँ
सीने में दबी हैं सिसकियाँ ..
अलविदा कहूँ तो फूट पड़ेंगी .
जीना बहुत मुश्किल है तुम्हारे बिन
फिर भी जीना तो पड़ेगा ना हमें ..
अब तक थाम कर चलती रही उंगली तुम्हारी
अब अकेले ही मंजिल तक पहुंचना है हमें
डरती हूँ मैं
घबराकर सहम जाती हूँ ...
कि इस भीड़ भरे शहर में खो न जाऊं मैं ...
टूट कर बिखर न जाए मेरी शख्सियत ...
खुद को ढूंढती न रह जाऊं मैं ..
कुछ भी हो ..
चलना तो पडेगा ही ना ?
अकेले दूर तलक .
वादा करती हूँ तुमसे मैं..
चलती रहूंगी
रुकूंगी नहीं मैं .
चाहे गिरुं खाकर ठोकर ..
बार-बार ..उठूंगी
दर्द अनेक सहूंगी मैं ..
ये मुश्किल तो है ..
पर नामुमकिन नहीं ..
क्योंकि नेह भरा जो दीपक तुम जला गए हो मन की देहरी पर
दिखाएंगी हरदम राह मुझे
अंधियारी अमावस में भी हर कदम पर एहसास होगा
तुम्हारी चाहत की उजास का...
Saturday, August 20, 2011
धरती की पुकार
कानों में बन पपीहे की पुकार।
पीहू पीहू ओ प्रियतम मेरे! बरसाओ अमृत रसधार।
सुनकर धरा की करुण पुकार
घिर आए श्यामल मेघ गगन में, बाहें फैलाए
क्षितिज के पार।
उमड़ घुमड़ घनघोर, मचाकर रौरव शोर
बरसाकर बूँदों की रिमझिम फुहार।
अंबर नटखट दूर क्षितिज से,
निहारे प्रिया को बारम्बार।
जल बूँदों के स्पर्श से सिहर उठी यों वसुधा।
पुलकित तन, नवअंकुरित हरित तृण
रोमावलि से उठे लहलहा।
फिर बह चली सुगंधित मंद बयार
तो धरा का रक्तिम किसलय अंचल लहराया।
धानी चूनर ओढ़कर क्यों चंचल मन फिर से मुसकाया?
झील की नीली आँखों से,
एकटक निहार प्रियतम अंबर को
दूर गगन में मेघ देख क्यों व्याकुल मन फिर शरमाया?
सद्यस्नाता धरा ने ली, तृप्ति भरी इक गहरी साँस।
महक उठी हवा भी कुछ,
कुसुमित हुआ जीवन प्रभात
सुरभित हुई दिशाएँ भी और
पल्लवित नवजीवन की आस।
Saturday, August 13, 2011
रक्षाबन्धन के हाइकु (हाइकु)
कमला निखुर्पा
1
अक्षत भाई
रोली बनी बहना
घर-मंदिर ।
2
राखी के धागे
ले उड़ती फिरी है
प्यारी बहना।
बावरी घटा
रस बरसाए है
भीगे बहना।
4
भरी अँखियाँ
छ्लकता जाए है
नैनों से नेह ।
5
भाई का नेह
बिन बदरा के ही
बरसा मेह
6
जेठ की धूप
शीतल पुरवाई
मेरा ये भाई।
7
नैनों की सीपी
चम चम चमके
नेह का मोती।
8
बंद मुठ्ठी में
घरौंदे की मिट्टी सी
भाई की चिट्ठी।
9
तेरा चेहरा
नभ में चमके ज्यों
भोर का तारा।
10
आई हिचकी
अभी अभी भाई ने
ज्यों चोटी खींची।
11
मेरा सपना
हँसे मुसकराए
भाई अपना।
12
है अभिलाषा
हर जनम मिले
भाई तुमसा।
13
मन -भँवरा
जीवन की बगिया
गुंजन गाए।
14
मैं रहूँ कहीं
तुमसे मेरी पीर
ना जाए सही।
15
तेरे आशीष
फूल बन बरसे
भरा दामन।
16
तुमसे मेरी पीर
ना जाए सही।
15
तेरे आशीष
फूल बन बरसे
भरा दामन।
16
नेह बंधन
ज्यों मन गगन में
चंदा रोशन ।
17
ज्यों मन गगन में
चंदा रोशन ।
17
तेरी दुआएँ
जीवन मरुथल में
ठंडी हवाएँ
जीवन मरुथल में
ठंडी हवाएँ
-0-
मेरे हाइकु यहाँ भी पढ़िएगा -कमला निखुर्पा
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